हिंदी के लिए प्रयुक्त देवनागरी वर्णमाला
भारत के संविधान के अनुच्छेद 343 (i) के अनुसार देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदी भारत संघ की राजभाषा है । यह लिपि संस्कृत के अखिल भारतीय स्वरूप के लिए तथा पाली, प्राकृत और अपभ्रंश के विविध रूपों के लिए प्रयुक्त होती रही है । यही नहीं, भारत के संविधान की आठवीं सूची में विनिर्दिष्ट कई आधुनिक भारतीय भाषाएँ, यथा : मराठी, कोंकणी, नेपाली, बोडो, संथाली, मणिपुरी, डोगरी आदि भी इसी लिपि में लिखी जाती हैं । इसी लिपि को आधार बना कर समस्त भारतीय भाषाओं के लिए ‘अतिरिक्त लिपि' के रूप में ‘परिवर्धित देवनागरी' का विकास किया गया है ।
हिंदी भाषा के लेखन के लिए अब ‘मानक देवनागरी' लिपि का प्रयोग होने लगा है ।
हिंदी के लिए प्रयुक्त देवनागरी वर्णमाला में 11 स्वर और 35 व्यंजन हैं । इनका स्वरूप निम्न प्रकार से है :
स्वर उच्चारण का स्थान और प्रयत्न
स्वरों के उच्चारण में केवल काकल में अवरोध होता है, मुख विवर से हवा निर्बाध गति से बाहर निकलती है । जिह्वा का हिस्सा विशेष कुछ ऊपर उठता है ।
अ
आ ह्रस्व, अर्ध विवृत, मध्य स्वर
दीर्घ, विवृत, पश्च स्वर
इ
ई ह्रस्व, संवृत, अग्र स्वर
दीर्घ, संवृत, अग्र स्वर
उ
ऊ ह्रस्व, संवृत, पश्च, गोलीकृत स्वर
दीर्घ, संवृत, पश्च, गोलीकृत स्वर
ऋ ह्रस्व स्वर, जिसका उच्चारण ‘ रि ' की तरह होता है ।
ए
ऐ दीर्घ, अर्ध संवृत, अग्र स्वर
दीर्घ, अर्ध विवृत, अग्र स्वर
ओ
औ दीर्घ, अर्ध संवृत, पश्च स्वर
दीर्घ, अर्ध विवृत, पश्च स्वर
अनुस्वार और विसर्ग
टिप्पणी
1.
‘ऋ' वर्ण का केवल तत्सम शब्दों में (यानी संस्कृत से हिंदी में ज्यों-के-त्यों गृहीत शब्दों में) लिखित प्रयोग होता है, जबकि इसका वास्तविक उच्चारण ‘रि' जैसा होता है । (अन्य भारतीय भाषाओं में, विशेषकर मराठी, गुजराती और दक्षिण भारत की भाषाओं में इसका उच्चारण ‘रु' जैसा होता है) ।
2.
हिंदी में दीर्घ ‘ऋ' तथा ह्रस्व और दीर्घ लृ – ॡ का प्रयोग नहीं होता । संस्कृत वर्णमाला में भी अब इन तीनों स्वरों का प्रयोग सामान्यत: देखने में नहीं आता ।
3.
हिंदी में ‘ऐ' और ‘औ' का प्रयोग संध्यक्षर की तरह न होकर मूल स्वर की तरह होता है (केवल ‘मैया' और ‘कौवा' वाली स्थितियों को छोड़कर) ।
4.
सभी स्वर घोष हैं ।
5.
प्राय: कई वर्णमाला चार्टों में अनुस्वार (अं) और विसर्ग (अ:) को स्वर वर्णमाला में सम्मिलित दिखाया जाता है, जो ठीक नहीं है । जहाँ तक हिंदी का संबंध है, वस्तुत: ये दोनो ‘स्वर' न होकर ‘व्यंजन' है । और पूर्ववर्ती स्वर के साथ ही उच्चारित हो सकते हैं ।
6.
अनुस्वार चिह्न (ं) का स्थान स्वर या उसकी मात्रा की शिरोरेखा के ऊपर है । यह विशेषक चिह्न स्ववर्गीय ङ् ञ् ण् न् और म् के स्थान पर प्रयुक्त होता है ।
7.
विसर्ग चिह्न ( : ) का स्थान स्वर या उसकी मात्रा के ठीक आगे है । यह स्वन तत्सम शब्दों में ही प्रयुक्त होता है, शब्दों में नहीं । उच्चारण की से यह संघर्षी ( ) का अघोष रूप है ।
8.
चंद्र बिंदु ( ँ ) का स्थान स्वर या उसकी मात्रा की शिरोरेखा के ऊपर है । यह विशेषक चिह्न संबंधित स्वर के अनुनासिक उच्चारण का है (यानी उस स्वर के उच्चारण में मुख विवर के साथ – साथ नासिका विवर से भी हवा बाहर निकलती है ।
हिंदी में सभी स्वरों का सार्थक अनुनासिकीकरण संभव है ।
9.
‘आ' या उसकी मात्रा की सूचक शिरोरेखा पर लगा चंद्र चिह्न (ॅ) विवृत ‘ऑ' का सूचक है । कुछ अंग्रेज़ी शब्दों के देवनागरीकरण में इस विशेषक चिह्न का प्रयोग होता है । जैसे : कॉलेज, ऑफिस आदि ।
हिंदी व्यंजन
(व्यंजनों का उच्चारण करते समय मुखाववय में यथास्थिति आंशिक या पूर्ण अवरोध होता है, फिर भले ही काकल में अवरोध हो या नहीं ।)
व्यंजन उच्चारण में स्थान और प्रयत्न
कवर्ग
क
ख
ग
घ
ड़
मृदु तालव्य / कंठ्य स्पर्श
चवर्ग
च
छ
ज
झ
ञ
तालव्य स्पर्श (आधुनिक पारिभासिक शब्दावली में स्पर्श – संघर्षी)
टवर्ग
ट
ठ
ड
ढ
ण
मूर्धन्य स्पर्श
तवर्ग
त
थ
द
ध
न
दंत्य स्पर्श
पवर्ग
प
फ
ब
भ
म
() ओष्ठ्य स्पर्श
य
र
ल
व
परंपरागत शब्दावली में ‘ अर्धस्वर '
श
ष
स
ह
उष्म / ऊष्म या संघर्षी व्यंजन
ड़
ढ़
मूर्धन्य ताड़ित व्यंजन
टिप्पणी
1.
उपर्युक्त व्यंजनों / वर्णों में ‘अ' अंतर्निहित स्वर है ।
2.
प्रत्येक वर्ग में दूसरा और चौथा व्यंजन ‘महाप्राण' है ( ‘ह' स्वन मिश्रित), जबकि शेष तीनों व्यंजन ‘अल्पप्राण' ।
3.
प्रत्येक वर्ग में पहला और दूसरा व्यंजन ‘अघोष' (घोष तंत्रियों में कंपन रहित) है, जबकि शेष तीनों व्यंजन ‘घोष' (घोष तंत्रियों में कंपन सहित) हैं ।
4.
प्रत्येक वर्ग का पाँचवाँ व्यंजन ‘नासिक्य' है क्योंकि इसमें मुखविवर के साथ – साथ नासिका विवर से भी हवा बाहर निकलती है । इन पाँचों नासिक्य व्यंजनों में से प्रथम तीन हिंदी शब्दों के आरंभ में नहीं आते ।
5.
ट वर्ग (यानी मूर्धन्य व्यंजन) भारतीय भाषाओं की विशेषता है । ये व्यंजन यथावत् अंग्रेज़ी में प्रयुक्त नहीं होते ।
6.
परंपरागत ‘अर्धस्वर' के अधीन परिगणित चारों व्यंजन य, र, ल, व में से पहला व्यंजन ‘य' ‘अर्धस्वर' है, जबकि ‘व' (जैसे : ‘वन' शब्दों में ) वस्तुत : ‘घोष संघर्षी' है । हाँ, किसी पूर्ववर्ती व्यंजन के साथ उच्चरित होकर यह ‘अर्धस्वर' बन जाता है । जैसे ‘स्वर' या ‘अनुस्वार' जैसे शब्दों में ‘व' ।
7.
‘ष' का लिखित प्रयोग केवल तत्सम शब्दों में ही होता है । हिंदी में इस व्यंजन का उच्चारण ‘श' जैसा ही होता है ।
8.
ड़ और ढ़ हिंदी के विशिष्ट उच्चारण वाले व्यंजन हैं । संस्कृत में इनका उच्चारण नहीं होता ।
9.
क्ष, त्र, ज्ञ और श्र भले ही वर्णमाला में दिए जाते हैं किंतु ये एकल व्यंजन नहीं हैं । वस्तुत : ये क्रमश : क् + ष, त् + र, ज् + ञ और श् + र के व्यंजन – संयोग हैं ।
10.
कुछ अरबी, फारसी और अंग्रेज़ी उच्चारण वाले गृहीत शब्द व्यंजन वर्ण के नीचे नुक्ता लगाकर लिखे जा रहे हैं । ये हैं :- क़, ख़, ग़, ज़ और फ़ ।
11.
‘ळ' (जिसे प्राय : हिंदी भाषी ‘ मराठी ‘ ळ कहता है) का उच्चारण ‘मानक हिंदी' में नहीं होता । हाँ, यह उच्चारण हिंदी की कुछ बोलियों (जैसे हरियाणवी, राजस्थानी आदि) में अवश्य सुनाई पड़ता है । इस व्यंजन उच्चारण को ‘परिवर्धित देवनागरी' में स्थान दिया गया है ताकि मराठी सहित दक्षिण भारत की भाषाओं आदि के और हिंदी की बोलियों के लिप्यांकन में इस उच्चारण को ‘परिवर्धित देवनागरी' के माध्यम से सही रूप में व्यक्त किया जा सके ।
ब्राहमी लिपि - प्रयोग काल
5वीं सती ई. पू. समय तक भारतीय के एक बड़े भू-भाग में लिपि का प्रयोग मिलता है । के अनेक पाठांतर रहे हैं । इस लेखन का प्रारंभ और भी प्राचीन काल से लक्षित होता है । महान भारतीय सम्राट अशोक ने भगवान के उपदेशों पर आधारित विधियों (नियमों) को इसी लिपि के विभिन्न रूपों में स्मारक-स्तंभों पर अंकित करवाया था ।
ब्राहमी - इसकी उत्पत्ति से संबंधित मत
इस लेखन- की के संबंध में अनेक मत मिलते हैं । बूलर, वेवर आदि इसे उत्तरी सेमेटिक (सामी) लिपि से निकला मानते हैं क्योंकि "अ" ध्वनि के लिए प्रयुक्त वर्ण सेमेटिक वर्ण "अलिफ" के समान है । इसी प्रकार ढ, ठ, ल और र ये सभी अपने सेमेटिक समकक्ष वर्णों के निकटवर्ती प्रतीत होते हैं ।
दूसरा मत इसे दक्षिण सेमेटिक मूल से जोड़ता है । तथापि, इस मत को अधिक स्वीकृति नही मिली ।
तीसरे मत के अनुसार की सिंधु घाटी लिपि से हुई है, 1900 वर्ष ई. पू. (हड़प्पा काल) के आसपास से लेकर 5वीं सती ई. पू. के मिले प्रथम शिलालेख के बीच के काल से इस मत के समर्थन में कोई भी लिखित प्रमाण अभी तक नहीं मिला है । तथा इसकी सहोदरी लेखन- खरोष्टी, सेमेटिक लिपियों से एकदम भिन्न है, जिसके कारण इनका इतिहास जानने में भ्रांति उपस्थित होती है ।
ब्राहमी - स्वरूप
एक "आक्षरिक लिपि" है जिसमें पुरानी फारसी की भाँति प्रत्येक वर्ण में किसी भी व्यंजन के साथ अंतनिर्हित "अ" स्वर जुड़ता है किंतु "अ" से इतर अन्य स्वर अपने मात्रा के रूप में व्यंजनों से जुड़ते हैं । दो या दो से अधिक व्यंजन 'संयुक्त व्यंजन' का निर्माण करते हैं : जैसे क्या (क् + या) ।
ब्राहमी - देवनागरी की जननी
लिपि देवनागरी सहित लगभग सभी भारतीय लेखन- की पूर्वज है । यही नहीं, कई अन्य एशियाई लिपियाँ - यथा बर्मी, थाई तथा तिब्बती लिपियाँ भी लिपि से ही विकसित हुई हैं । अत: लिपि ग्रीक (यावनी) लिपि की समानक भारतीय लिपि है जिसने विभिन्न लेखन- को जन्म दिया ।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 343 (i) के अनुसार देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदी भारत संघ की राजभाषा है । यह लिपि संस्कृत के अखिल भारतीय स्वरूप के लिए तथा पाली, प्राकृत और अपभ्रंश के विविध रूपों के लिए प्रयुक्त होती रही है । यही नहीं, भारत के संविधान की आठवीं सूची में विनिर्दिष्ट कई आधुनिक भारतीय भाषाएँ, यथा : मराठी, कोंकणी, नेपाली, बोडो, संथाली, मणिपुरी, डोगरी आदि भी इसी लिपि में लिखी जाती हैं । इसी लिपि को आधार बना कर समस्त भारतीय भाषाओं के लिए ‘अतिरिक्त लिपि' के रूप में ‘परिवर्धित देवनागरी' का विकास किया गया है ।
हिंदी भाषा के लेखन के लिए अब ‘मानक देवनागरी' लिपि का प्रयोग होने लगा है ।
हिंदी के लिए प्रयुक्त देवनागरी वर्णमाला में 11 स्वर और 35 व्यंजन हैं । इनका स्वरूप निम्न प्रकार से है :
स्वर उच्चारण का स्थान और प्रयत्न
स्वरों के उच्चारण में केवल काकल में अवरोध होता है, मुख विवर से हवा निर्बाध गति से बाहर निकलती है । जिह्वा का हिस्सा विशेष कुछ ऊपर उठता है ।
अ
आ ह्रस्व, अर्ध विवृत, मध्य स्वर
दीर्घ, विवृत, पश्च स्वर
इ
ई ह्रस्व, संवृत, अग्र स्वर
दीर्घ, संवृत, अग्र स्वर
उ
ऊ ह्रस्व, संवृत, पश्च, गोलीकृत स्वर
दीर्घ, संवृत, पश्च, गोलीकृत स्वर
ऋ ह्रस्व स्वर, जिसका उच्चारण ‘ रि ' की तरह होता है ।
ए
ऐ दीर्घ, अर्ध संवृत, अग्र स्वर
दीर्घ, अर्ध विवृत, अग्र स्वर
ओ
औ दीर्घ, अर्ध संवृत, पश्च स्वर
दीर्घ, अर्ध विवृत, पश्च स्वर
अनुस्वार और विसर्ग
टिप्पणी
1.
‘ऋ' वर्ण का केवल तत्सम शब्दों में (यानी संस्कृत से हिंदी में ज्यों-के-त्यों गृहीत शब्दों में) लिखित प्रयोग होता है, जबकि इसका वास्तविक उच्चारण ‘रि' जैसा होता है । (अन्य भारतीय भाषाओं में, विशेषकर मराठी, गुजराती और दक्षिण भारत की भाषाओं में इसका उच्चारण ‘रु' जैसा होता है) ।
2.
हिंदी में दीर्घ ‘ऋ' तथा ह्रस्व और दीर्घ लृ – ॡ का प्रयोग नहीं होता । संस्कृत वर्णमाला में भी अब इन तीनों स्वरों का प्रयोग सामान्यत: देखने में नहीं आता ।
3.
हिंदी में ‘ऐ' और ‘औ' का प्रयोग संध्यक्षर की तरह न होकर मूल स्वर की तरह होता है (केवल ‘मैया' और ‘कौवा' वाली स्थितियों को छोड़कर) ।
4.
सभी स्वर घोष हैं ।
5.
प्राय: कई वर्णमाला चार्टों में अनुस्वार (अं) और विसर्ग (अ:) को स्वर वर्णमाला में सम्मिलित दिखाया जाता है, जो ठीक नहीं है । जहाँ तक हिंदी का संबंध है, वस्तुत: ये दोनो ‘स्वर' न होकर ‘व्यंजन' है । और पूर्ववर्ती स्वर के साथ ही उच्चारित हो सकते हैं ।
6.
अनुस्वार चिह्न (ं) का स्थान स्वर या उसकी मात्रा की शिरोरेखा के ऊपर है । यह विशेषक चिह्न स्ववर्गीय ङ् ञ् ण् न् और म् के स्थान पर प्रयुक्त होता है ।
7.
विसर्ग चिह्न ( : ) का स्थान स्वर या उसकी मात्रा के ठीक आगे है । यह स्वन तत्सम शब्दों में ही प्रयुक्त होता है, शब्दों में नहीं । उच्चारण की से यह संघर्षी ( ) का अघोष रूप है ।
8.
चंद्र बिंदु ( ँ ) का स्थान स्वर या उसकी मात्रा की शिरोरेखा के ऊपर है । यह विशेषक चिह्न संबंधित स्वर के अनुनासिक उच्चारण का है (यानी उस स्वर के उच्चारण में मुख विवर के साथ – साथ नासिका विवर से भी हवा बाहर निकलती है ।
हिंदी में सभी स्वरों का सार्थक अनुनासिकीकरण संभव है ।
9.
‘आ' या उसकी मात्रा की सूचक शिरोरेखा पर लगा चंद्र चिह्न (ॅ) विवृत ‘ऑ' का सूचक है । कुछ अंग्रेज़ी शब्दों के देवनागरीकरण में इस विशेषक चिह्न का प्रयोग होता है । जैसे : कॉलेज, ऑफिस आदि ।
हिंदी व्यंजन
(व्यंजनों का उच्चारण करते समय मुखाववय में यथास्थिति आंशिक या पूर्ण अवरोध होता है, फिर भले ही काकल में अवरोध हो या नहीं ।)
व्यंजन उच्चारण में स्थान और प्रयत्न
कवर्ग
क
ख
ग
घ
ड़
मृदु तालव्य / कंठ्य स्पर्श
चवर्ग
च
छ
ज
झ
ञ
तालव्य स्पर्श (आधुनिक पारिभासिक शब्दावली में स्पर्श – संघर्षी)
टवर्ग
ट
ठ
ड
ढ
ण
मूर्धन्य स्पर्श
तवर्ग
त
थ
द
ध
न
दंत्य स्पर्श
पवर्ग
प
फ
ब
भ
म
() ओष्ठ्य स्पर्श
य
र
ल
व
परंपरागत शब्दावली में ‘ अर्धस्वर '
श
ष
स
ह
उष्म / ऊष्म या संघर्षी व्यंजन
ड़
ढ़
मूर्धन्य ताड़ित व्यंजन
टिप्पणी
1.
उपर्युक्त व्यंजनों / वर्णों में ‘अ' अंतर्निहित स्वर है ।
2.
प्रत्येक वर्ग में दूसरा और चौथा व्यंजन ‘महाप्राण' है ( ‘ह' स्वन मिश्रित), जबकि शेष तीनों व्यंजन ‘अल्पप्राण' ।
3.
प्रत्येक वर्ग में पहला और दूसरा व्यंजन ‘अघोष' (घोष तंत्रियों में कंपन रहित) है, जबकि शेष तीनों व्यंजन ‘घोष' (घोष तंत्रियों में कंपन सहित) हैं ।
4.
प्रत्येक वर्ग का पाँचवाँ व्यंजन ‘नासिक्य' है क्योंकि इसमें मुखविवर के साथ – साथ नासिका विवर से भी हवा बाहर निकलती है । इन पाँचों नासिक्य व्यंजनों में से प्रथम तीन हिंदी शब्दों के आरंभ में नहीं आते ।
5.
ट वर्ग (यानी मूर्धन्य व्यंजन) भारतीय भाषाओं की विशेषता है । ये व्यंजन यथावत् अंग्रेज़ी में प्रयुक्त नहीं होते ।
6.
परंपरागत ‘अर्धस्वर' के अधीन परिगणित चारों व्यंजन य, र, ल, व में से पहला व्यंजन ‘य' ‘अर्धस्वर' है, जबकि ‘व' (जैसे : ‘वन' शब्दों में ) वस्तुत : ‘घोष संघर्षी' है । हाँ, किसी पूर्ववर्ती व्यंजन के साथ उच्चरित होकर यह ‘अर्धस्वर' बन जाता है । जैसे ‘स्वर' या ‘अनुस्वार' जैसे शब्दों में ‘व' ।
7.
‘ष' का लिखित प्रयोग केवल तत्सम शब्दों में ही होता है । हिंदी में इस व्यंजन का उच्चारण ‘श' जैसा ही होता है ।
8.
ड़ और ढ़ हिंदी के विशिष्ट उच्चारण वाले व्यंजन हैं । संस्कृत में इनका उच्चारण नहीं होता ।
9.
क्ष, त्र, ज्ञ और श्र भले ही वर्णमाला में दिए जाते हैं किंतु ये एकल व्यंजन नहीं हैं । वस्तुत : ये क्रमश : क् + ष, त् + र, ज् + ञ और श् + र के व्यंजन – संयोग हैं ।
10.
कुछ अरबी, फारसी और अंग्रेज़ी उच्चारण वाले गृहीत शब्द व्यंजन वर्ण के नीचे नुक्ता लगाकर लिखे जा रहे हैं । ये हैं :- क़, ख़, ग़, ज़ और फ़ ।
11.
‘ळ' (जिसे प्राय : हिंदी भाषी ‘ मराठी ‘ ळ कहता है) का उच्चारण ‘मानक हिंदी' में नहीं होता । हाँ, यह उच्चारण हिंदी की कुछ बोलियों (जैसे हरियाणवी, राजस्थानी आदि) में अवश्य सुनाई पड़ता है । इस व्यंजन उच्चारण को ‘परिवर्धित देवनागरी' में स्थान दिया गया है ताकि मराठी सहित दक्षिण भारत की भाषाओं आदि के और हिंदी की बोलियों के लिप्यांकन में इस उच्चारण को ‘परिवर्धित देवनागरी' के माध्यम से सही रूप में व्यक्त किया जा सके ।
ब्राहमी लिपि - प्रयोग काल
5वीं सती ई. पू. समय तक भारतीय के एक बड़े भू-भाग में लिपि का प्रयोग मिलता है । के अनेक पाठांतर रहे हैं । इस लेखन का प्रारंभ और भी प्राचीन काल से लक्षित होता है । महान भारतीय सम्राट अशोक ने भगवान के उपदेशों पर आधारित विधियों (नियमों) को इसी लिपि के विभिन्न रूपों में स्मारक-स्तंभों पर अंकित करवाया था ।
ब्राहमी - इसकी उत्पत्ति से संबंधित मत
इस लेखन- की के संबंध में अनेक मत मिलते हैं । बूलर, वेवर आदि इसे उत्तरी सेमेटिक (सामी) लिपि से निकला मानते हैं क्योंकि "अ" ध्वनि के लिए प्रयुक्त वर्ण सेमेटिक वर्ण "अलिफ" के समान है । इसी प्रकार ढ, ठ, ल और र ये सभी अपने सेमेटिक समकक्ष वर्णों के निकटवर्ती प्रतीत होते हैं ।
दूसरा मत इसे दक्षिण सेमेटिक मूल से जोड़ता है । तथापि, इस मत को अधिक स्वीकृति नही मिली ।
तीसरे मत के अनुसार की सिंधु घाटी लिपि से हुई है, 1900 वर्ष ई. पू. (हड़प्पा काल) के आसपास से लेकर 5वीं सती ई. पू. के मिले प्रथम शिलालेख के बीच के काल से इस मत के समर्थन में कोई भी लिखित प्रमाण अभी तक नहीं मिला है । तथा इसकी सहोदरी लेखन- खरोष्टी, सेमेटिक लिपियों से एकदम भिन्न है, जिसके कारण इनका इतिहास जानने में भ्रांति उपस्थित होती है ।
ब्राहमी - स्वरूप
एक "आक्षरिक लिपि" है जिसमें पुरानी फारसी की भाँति प्रत्येक वर्ण में किसी भी व्यंजन के साथ अंतनिर्हित "अ" स्वर जुड़ता है किंतु "अ" से इतर अन्य स्वर अपने मात्रा के रूप में व्यंजनों से जुड़ते हैं । दो या दो से अधिक व्यंजन 'संयुक्त व्यंजन' का निर्माण करते हैं : जैसे क्या (क् + या) ।
ब्राहमी - देवनागरी की जननी
लिपि देवनागरी सहित लगभग सभी भारतीय लेखन- की पूर्वज है । यही नहीं, कई अन्य एशियाई लिपियाँ - यथा बर्मी, थाई तथा तिब्बती लिपियाँ भी लिपि से ही विकसित हुई हैं । अत: लिपि ग्रीक (यावनी) लिपि की समानक भारतीय लिपि है जिसने विभिन्न लेखन- को जन्म दिया ।