रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से लिए गए अपनी सुविधा-संपन्न कॉलोनी में मेरी नज़र जब उस बच्चे पर पड़ी तो मैं बुरी तरह चौंक गयी. ये क्या! सोमालिया के बच्चों की तरह कुपोषण के कारण फूला हुआ पेट और लकड़ी जैसे सूखे हाथ-पैर, काला तन जिस पर एक कपडा भी नहीं. मुश्किल से ३ साल का वह बच्चा अपनी माँ का हाथ पकड़े कॉलोनी के सामने बन रहे कॉलेज में काम कर रहे मजदूरों के पास खड़ा था, समझ में नहीं आया कि उसकी माँ उन मजदूरों में से ही एक है या नहीं. जहाँ तक मुझे लगा, नहीं थी. दुबली-पतली, सूखा चेहरा, काला पड़ा शरीर, माँ की हालत भी दयनीय थी. यूँ तो हर रोज़ ही कितने ऐसे बच्चे नज़र आ जाते हैं, जो कपड़ों के नाम पर चीथड़ा पहने कूड़ा बटोरते रहते हैं, परन्तु वह बच्चा उस सीमा के भी बाहर था. रिक्शे में बैठी अपने बच्चों के साथ जब मैं उनके सामने से गुजरी तो एकबारगी लगा, रूक जाऊं और पूछूं कि कहाँ से आयी हो. अपने घर ले जाकर कुछ कपडे और खाना दे दूं. पर फिर दिमाग ने कहा कि पता नहीं साथ में और कौन है, कैसे हैं, घर ले जाना ठीक होगा? मुझे लगा कि आज मुझसे खाना नहीं खाया जायेगा. पर मैं गलत थी, खुद को ही नहीं समझ पाई. उसी दिन क्या, हर रोज़ मैं उस बच्चे को याद करती हूँ और हर रोज़ अच्छे से खाती भी हूँ. मैं अपने बच्चों को भी हर पौष्टिक चीज खिलाती हूँ और उनके न खाने पर नाराज़ भी होती हूँ. समझ में नहीं आ रहा कि मैं किस तरह की इंसान हूँ. मुझे कोई अपराधबोध नहीं होता, उलटे मैं अपने मन को मनाती हूँ कि दुनिया में ऐसी लाखों बातें हैं, कहाँ तक दुःख मनाओगे, भावुकता का अतिरेक बेकार है. Be Normal. मेरे बच्चे भी मेरी भावुकता जानते हैं, पर मुझसे एक कदम आगे हैं. बच्चों को बच्चों के लिए दुःख होना स्वाभाविक है, पर इस दुःख में वे प्रैक्टिकल होना नहीं छोड़ते. मैं समझ नहीं पाती कि अपने बच्चों को मैं सही शिक्षा दे रही हूँ या नहीं. दिल्ली जैसे महानगर में अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए उनका प्रैक्टिकल होना ही शायद ज़्यादा अच्छा है. Posted By : Tarushikha | |
03 October 2010
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1 comment:
आपका ब्लॉग बहुत पसंड आया है, सारी पोस्ट पढ़ी हैं, आभार स्वीकारें इस सार्थक ब्लॉग को चलाने के लिये।
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