स्लेट-खड़िया,
कलम दवात और तख्ती
वाला बस्ता
कितना हल्का था
जबकि
उसमें भरे रहते थे
निबौरियां, कंचे, गिट्टे और
मोर के पंख भी
और हाँ बहुत सारे
नन्हें और मासूम सपने भी
वो बस्ते कभी भारी
हुए भी नहीं
तब भी
जब स्कूल से लौटते हुए
कच्चे आमों से भरे
हुए वो बस्ते
उलट दिए जाते थे
दादी-माँ की गोद में
छुट्टी की घंटी बजी नहीं कि
बचपन और बस्ता
दोनों दौड़ पड़ते थे
खेतों, मैदानों, पगडंडियों और
नदी के किनारों की तरफ
घर जाने की जल्दी आखिर किसे थी?
नीली स्याही के बड़े-बड़े
धब्बों वाले वो बस्ते नहीं रहे
अब स्कूल बैग हैं
न निबौरियां, न कंचे, न गिट्टे,
न मोर के पंख
पर भारी तो होंगे ही
आखिर इसमें ठूंस-ठूंस
कर भर दिए हैं माँ-बाप ने
अपने सपने
.......................................गोपी नाथ
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