नाम : निर्मला पुतुल
जन्म : 06 मार्च 1972 ई.
जन्म स्थान : गाँव - दुधनी कुरूवा, जिला - दुमका (संताल परगना, झारखंड)
पिता : स्वर्गीय सिरील मुर्मू
माता : श्रीमती कान्दनी हाँसदा
शिक्षा : प्रारंभिक शिक्षा (दुमका), दुधनी कुरूवा एवं दुमका (जिला दुमका) से
स्नातक (राजनीति शास्त्र में प्रतिष्ठा)
अन्य योग्यता : नर्सिंग में डिप्लोमा
भाषा ज्ञान : संताली, हिन्दी, नागपुरी, बांग्ला, खोरठा, भोजपुरी, अंगिका, अंग्रेजी
सामाजिक कार्य एवं भागीदारी
विगत 15 वर्षों से भी अध्कि समय से शिक्षा, सामाजिक विकास, मानवाधिकार और आदिवासी महिलाओं के समग्र उत्थान के लिए व्यक्तिगत, सामूहिक एवं संस्थागत स्तर पर सतत सक्रिय। अनेक राज्य स्तरीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के साथ जुड़ाव। आदिवासी, महिला, शिक्षा और साहित्यिक विषयों पर आयोजित सम्मेलनों, आयोजनों, कार्यशालाओं एवं कार्यक्रमों में व्याख्यान व मुख्य भूमिका के लिए आमंत्रित। अनेक संगठनों व संस्थाओं की संस्थापक सदस्या। स्वास्थ्य परिचायिका के रूप में संताल परगना के ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष कार्य।
मुद्दों पर कार्य
आदिवासी महिलाओं का विस्थापन, पलायन, उत्पीड़न, स्वास्थ्य, शिक्षा, जेन्डर संवेदनशीलता, मानवाधिकार एवं सम्पत्ति पर अधिकार
शिक्षा क्षेत्र में भागीदारी
ग्रामीण, पिछड़ी, दलित, आदिवासी, आदिम जनजाति महिलाओं के बीच शिक्षा एवं जागरूकता के लिए विशेष प्रयास।
सामाजिक क्षेत्र में भागीदारी, कार्य एवं संबद्धता
जीवन रेखा ट्रस्ट, संताल परगना (झारखंड) की संस्थापक-सचिव
झारखंड नेशनल एलायंस ऑफ वीमेन, संताल परगना (झारखंड)
झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा (झारखंड)
जन संस्कृति मंच, उपाध्यक्ष, केन्द्रीय समिति, दिल्ली
साहित्यिक योगदान
मातृभाषा संताली (आदिवासी भाषा) में प्रकाशित पुस्तकें
लेखन, संकलन एवं संपादन
ईं×ााक् ओडाक् सेंदरा रे, (हिन्दी-संताली, रमणिका फाउण्डेशन, नई दिल्ली)
ओनोंड़हें (संताली कविता संग्रह) शीघ्र प्रकाश्य
हिन्दी में प्रकाशित कविता-संग्रह
नगाड़े की तरह बजते शब्द (भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली)
अपने घर की तलाश में (रमणिका फाउण्डेशन, नई दिल्ली)
फूटेगा एक नया विद्रोह (शीघ्र प्रकाश्य)
पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ
- आदिवासी - झारखंड इनसाइक्लोपीडिया
- जोहार - चाणक्या टुडे
- चौमासा - द बुक एशिया
- अरावली उद्घोष - प्रभात खबर
- शाल-पत्र - हिन्दुस्तान
- युद्धरत आम आदमी - दैनिक जागरण
- देशज स्वर - हूल जोहार
- कांची - सहयात्री
- झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा - जोहार सहिया
- गोतिया - वागर्थ
- नया ज्ञानोदय - समकालीन भारतीय
- लम्ही, द बुक एशिया के अलावा कई अन्य प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं व आलेखो का प्रकाशन।
- आकाशवाणी एवं दूरदर्शन, रांची, भागलपुर व दिल्ली से अनेक कहानियाँ, कविताएँ और आलेखों का प्रसारण
- एन.सी.ई.आर.टी, नई दिल्ली द्वारा झारखंड, बिहार, जम्मू-कश्मीर के ग्यारहवीं तथा एस.सी.ई.आर.टी.,केरल द्वारा नवीं कक्षा की पाठ्य पुस्तक में कविताएं शामिल
- अंग्रेजी, मराठी, उर्दू, उड़िया, कन्नड़, नागपुरी, पंजाबी, नेपाली में कविताएँ अनुदित
संपादन
- समय-समय पर स्थानीय व राष्ट्रीय स्तर के अनेक पत्र-पत्रिकाओं के संपादन, सह संपादन से संबद्ध
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सम्मान
- साहित्य अकादमी, नई दिल्ली द्वारा ‘साहित्य सम्मान’ 2001 में
- झारखंड सरकार द्वारा ‘राजकीय सम्मान’, 2006 में
- झारखंड सरकार के कला-संस्कृति, खेलकूद एवं युवा कार्य विभाग द्वारा
सम्मानित व पुरस्कृत, 2006 में
- हिन्दी साहित्य परिषद्, मैथन द्वारा सम्मानित, 2006 में
- ‘मुकुट बिहारी सरोज स्मृति सम्मान’, ग्वालियर द्वारा, 2006 में
- ‘भारत आदिवासी सम्मान’, मिजोरम सरकार द्वारा 2006 में
- ‘विनोबा भावे सम्मान’ नगरी लिपि परिषद्, दिल्ली द्वारा 2006 में
- ‘हेराल्ड सैमसन टोपनो स्मृति सम्मान’, झारखण्ड, 2006 में,
- ‘बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान’, बिहार, 2007 में
- ‘शिला सिद्धान्तकर स्मृति सम्मान’, नई दिल्ली, 2008 में
- महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी द्वारा सम्मानित, 2008 में
- हिमाचल प्रदेश हिन्दी साहित्य अकादमी्, द्वारा सम्मानित, 2008 में
- ‘राष्ट्रीय युवा पुरस्कार’, भारतीय भाषा परिषद्, कोलकत्ता द्वारा, 2009 में
फेलोशिप/रिसर्च
- एन.एफ.आई. मीडिया फेलोशिप, नई दिल्ली, 2006 में
- पेनोस मीडिया फेलोशिप, नई दिल्ली, 2007 में
- एरगेनियन असिस्टेन्ट संस्था, दुमका द्वारा महिला हिंसा पर फेलोशिप
- जे.एन.यू (नई दिल्ली), दिल्ली विश्वविद्यालय, (नई दिल्ली), संस्कृत विश्वविद्यालय, (केरल), विलासपुर विश्वविद्यालय, (मध्यप्रदेश) हैदराबाद हिन्दी विश्वविद्यालय (हैदराबाद) के रिसर्च छात्रों एवं प्राध्यापकों द्वारा कविताओं पर विशेष शोध अध्ययन एवं शोध प्रबंध प्रकाशित
ऑडियो-विजुवल
- जीवन पर आधरित फिल्म ‘बुरू-गारा’, जिसे 2010 में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त हुआ।
सम्प्रति
- सचिव, जीवन रेखा, अपना पूरा समय लेखन, सामाजिक एवं शैक्षणिक कार्यों को समर्पित
सम्पर्क पता:
निर्मला पुतुल
सचिव
जीवन रेखा
दुधनी कुरूवा, दुमका - 814101 झारखंड
दूरभाष: 09934520735, 09304453077
ई-मेल:nirmalaputul@gmail.com, jevanrekha@gmail.com
मनुष्य जैसे-जैसे सभ्यता की ऊँचाइयाँ हासिल करता जा रहा है, खेद का विषय है कि वैसे-वैसे ही बर्बरता के शिखर भी लाँघता जा रहा है। सारी दुनिया आज आतंक के साए तले जी रही है। खाड़ी देशों में तेल के कारण युद्ध है तो फिलिस्तीन में नस्ल के नाम पर युद्ध है। भारत और उसके पड़ोसी देश तरह-तरह की हिंसा से ग्रस्त हैं। इस सब में जाने कितने बच्चे बेघर होते हैं,जाने कितने बुजुर्ग बुढ़ापे के दर्द को झेलते हुए राहत शिविरों में वक्त काटने को मजबूर होते हैं। जाने कितने निर्दोष जन जेल और यातना शिविर में ठूँस दिए जाते हैं और न जाने कितनी औरतों की आबरू लड़ाई के बीचोबीच चिथड़े-चिथड़े कर दी जाती है। कुल मिलाकर हर ओर मनुष्य के जीने और रहने के मूलभूत अधिकारों का हनन होता दिखाई दे रहा है। ऐसा प्रतीत होने लगा है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के इस नए युग में यद्यपि मनुष्य दुनिया को अपनी मुट्ठी में करने के अभियान में सफल होता दिखाई दे रहा है, तथापि उसकी मुट्ठी से उसके अपने जीवन के अधिकार छूटते जा रहे हैं। यही कारण है कि दुनिया भर में आज मानवाधिकारों के संरक्षण की चिंता बढ़ गई है। इस स्थिति में साहित्य की प्रासंगिकता का मूलाधार भी यही है कि वह इस रक्त रंजित सामाजिक यथार्थ को पहचानने और मानव अधिकारों के प्रति जागरूकता को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए अपने आपको समर्पित कर दे। इसमें संदेह नहीं कि “कवि केवल कवि नहीं, समाजशास्त्री भी है। उसकी अपनी वैज्ञानिक समझ है। वह सामाजिक विमर्श से कविता के भीतर और बाहर कहीं भी उदासीन नहीं रह सकता।” (स्वप्निल श्रीवास्तव, आलोचना,अप्रैल-जून २००३, पृ. ३३)। इसी का परिणाम है कि आज की कविता में शंका, शोक, आंदोलन,विद्रोह और असमंजस एक साथ उपस्थित हैं। साथ ही इस भीषण समय की अभिव्यक्ति के लिए सटीक भाषा की तलाश का सवाल भी -
“इस मिट्टी को
उस भाषा में मैं किस नाम से पुकारूँ
जिस भाषा में
मिट्टी का मतलब होता है सिर्फ लाश।” (राजेंद्र कुमार)
मानव अधिकारों से वंचितों की श्रेणी के रूप में भारतीय समाज में दलितों की एक अलग जमात रही है जिन्हें सदा हिकारत की नज़र से देखा गया और जाति विशेष में जन्म लेने के कारण हीन समझा गया। कविता में यों तो किसी न किसी रूप में सदा ही वंचितों और दलितों की पक्षधरता का स्वर मुखर रहा है, लेकिन आज के समय में लोकतंत्र और भूमंडलीकरण ने दलित कविता के लिए अपेक्षाकृत अधिक खुला आसमान उपलब्ध कराया है। यही कारण है कि अब दलित अपनी अनुभूतियों, पीड़ा और संवेदना को अपने अनुभव की ठोस भाषा में सटीक अभिव्यक्ति दे रहे हैं और साहित्य में अपनी सुनिश्चित उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। दलित कविता में दलितों का स्वयं भोगा हुआ अनुभव जगत है। उन्हें भले ही काव्यात्मक अभिव्यक्ति की दीक्षा विरासत में न मिली हो फिर भी दलितों की आवाज की अनन्यता इस प्रवृत्ति के आरंभ से ही अपनी मौलिकता के कारण पहचान बनाने में समर्थ रही है। दलितों ने अपने समुदाय पर हो रहे सामाजिक- राजनैतिक अत्याचारों के खिलाफ पूरे तेवर के साथ सवाल उठाए तथा तथाकथित सभ्यता, परंपरा और सामाजिक व्यव्था की पोल खोल कर रख दी। महात्मा ज्योतिबा फुले और डॉ. बाबा साहेब भीमराव अंबेदकर के समाज दर्शन के अनुरूप रचित इस कविता (दलित कविता) को यदि अंबेदकरवादी कविता भी कहा जाए तो कोई अत्युक्ति न होगी क्योंकि यह कविता उसी सामाजिक-राजनैतिक भूमिका का निर्वाह कर रही है जिसका स्वप्न इन महान चिंतकों ने देखा था।
अंबेदकरवादी कविता के उन्नायकों ने निर्मला पुतुल का महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने केवल दलित जीवन को ही नहीं बल्कि दलितों में भी दलित अर्थात आदिवासियों और स्त्रियों के जीवन संघर्ष को अपनी कविता का विषय बनाया है। आदिवासी जो सारी सभ्यता का पूर्वज है,विकास की दौड़ में पिछड़ा और पददलित बनकर रह गया है। उसे अशिष्ट और असभ्य समझा जाता है तथा तेज रफ्तार जिंदगी उसे हाशिए पर धकेल कर आगे निकल जाती है। निर्मला पुतुल ने अपनी कविता को इन प्रवंचित और मूक प्राणियों की आवाज बनाया है -
“अक्सर चुप रहनेवाला आदमी
कभी न कभी बोलेगा
जरूर सिर उठाकर
चुप्पी टूटेगी एक दिन धीरे-धीरे उसकी
धीरे-धीरे सख्त होंगे उसके इरादे
व्यवस्था के खिलाफ
भीतर-भीतर ईजाद करते
कई-कई खतरनाक शस्त्र।” (धीरे-धीरे)
कवियित्री यह जानती है कि शोषक वर्ग ही कपटपूर्वक समाजसेवी का वेश बना लेता है और आदिवासियों को शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाने से रोके रखता है, उनके आक्रोश और विद्रोह को मीठी भाषा की चासनी में लिपटा ज़हर चटाकर मार डालता है। यह वर्ग आदिवासियों को भी नष्ट कर रहा है और उनके परिवेश को भी। आदिवासी वृक्ष और नदी के साथ जीते हैं, वे उनके लिए जीवन के पर्याय हैं। लेकिन तथाकथित सभ्य समाज उनके इस पर्यावरण को प्रदूषित ही नहीं, समाप्त करने पर तुला है। विकास के नाम पर उनसे उनकी मिट्टी छीन ली जाती है। मिट्टी छीन लेने पर उससे जुड़े संस्कारों का कट जाना सहज परिणाम है। जंगल और नदियों पर निर्भर रहनेवाले आदिवासियों को पुनर्वास रूपी उपहार देकर उनकी जमीन से उखाड़कर अन्यत्र रोपने का प्रयास किया जाता है, परंतु ऐसा करने वाली सरकारें यह भूल जाती हैं कि आदिवासियों के रीति-रिवाज और त्यौहारों का संबंध इन्हीं जंगलों और नदियों से है। इनसे दूर उनकी संस्कृति का कोई अर्थ नहीं रह जाता। प्रकृति ही उनके लिए देवी-देवता है और वही उनकी भूख और बेबसी का निवारण कर सकती है। यही कारण है कि निर्मला पुतुल विकास के नाम पर आदिवासियों के व्यापक विस्थापन को उनके मानवाधिकार के प्रति एक क्रूर कार्रवाई के रूप में देखती हैं और प्रश्न करती हैं -
“पर तुम्हीं बताओ, यह कैसे संभव है?
आँख रहते अंधी कैसे हो जाऊँ मैं?
कैसे कह दूँ रात को दिन?
खून को पानी कैसे लिख दूँ?” (खून को पानी कैसे लिख दूँ)
यह भी उल्लेखनीय है कि आदिवासी जीवन के चित्रण को पूर्ण प्रामाणिकता प्रदान करते हुए निर्मला पुतुल ने आदिवासी स्त्रियों की दशा और मानसिकता को भी अपनी कविता में पूरा स्थान दिया है। उनकी कविताओं में संथाली सभ्यता और संस्कार की गंध सर्वत्र व्याप्त है। उनमें इस बात का निर्भीकतापूर्वक खुलासा किया गया है कि किस प्रकार सत्ता का चाबुक पददलित पर, खासकर औरतों पर, प्रहार करता है और उनके भीतर इन प्रहारों से मुक्ति पाने की तड़प तथा बेचैनी जाग उठती है।
प्रायः यह मिथ्याधारणा पाल ली जाती है कि आदिवासी समाजों में स्त्री अपेक्षाकृत स्वतंत्र और अधिकार संपन्न है। निर्मला पुतुल इस मिथ को तोड़ती हैं। वे स्त्री की अस्मिता का प्रश्न काफी तल्ख लहजे में उठाती हैं -
“एक तकिया
क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए
कि कहीं से थका माँदा आया और सिर टिका
कोई खूँटी
कि ऊब उदासी थकान से भरी
कमीज उतारकर टाँग दिया
या आँगन में तनी अरगनी
कि घर-भर के कपड़े लाद दिया।” (क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए)
वस्तुतः स्त्री की इस स्थिति के लिए उसे घरेलू बनाकर तथा मातृत्व का अतिरिक्त महिमामंडन करके सेविका बने रहने को मजबूर करने वाली प्रथाएँ जिम्मेदार हैं। सारे कर्तव्य स्त्री के जिम्मे, और सारे अधिकार पुरुष के हक में ! ऐसे में अगर कोई स्त्री मानवाधिकार की बात करे, पिता की संपत्ति का अधिकार मांगे, पर्वतों और वनों की कटाई का विरोध करे, सूदखोरों और ओझाओं की लूट का पर्दाफाश करे या शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाए तो आदिवासी समाज के पास भी उसे कुचल डालने के लिए ’पंचायत‘ नाम की एक व्यवस्था है जो ऐसी स्त्रियों को बड़ी सरलता से ’डायन‘ घोषित करके मरवा डालती है। ऐसी स्त्रियों को भरी पंचायत में सरेआम नंगी नचाया जा सकता है, बिना दलील के छोड़ा जा सकता है, सब कुछ से वंचित किया जा सकता है। पुरुष समाज की इस ’यूज एंड थ्रो‘ संस्कृति को प्रश्नांकित करते हुए पुतुल की स्त्री पूछती है -
“क्या है गलती मेरी
जो छोड़ना चाहते हो मुझे?
क्या इसी दिन के लिए इतने जतन से
घर गृहस्थी सँभाली तुम्हारी?
मिलकर बाँधी खोचर
बनाई कोठी और चूल्हा
इसी दिन के लिए?
कि मन भर जाते ही
फटी पुरानी धोती की तरह
उतार फेंको मुझे?” (मेरा कसूर क्या है)
कवियित्री निर्मला पुतुल तथाकथित सभ्य समाज की भोगवादी मानसिकता को भली प्रकार पहचानती हैं और उघाड़ती भी हैं। यह समाज एक ओर तो आदिवासियों की भाषा, संप्रदाय,चाल-चलन, पोषाक आदि का मजाक उड़ाते हुए उन्हें असभ्य घोषित करता है और दूसरी ओर इन्हीं आदिवासियों की स्त्रियों की देह के लिए लपकता और लार टपकाता रहता है। आदिवासी क्षेत्रों में तथाकथित सभ्य समाज के पदार्पण का परिणाम नाबालिग और नाजायज आदिवासी माँओं की बढ़ती संख्या के रूप में सामने आता है। स्त्री शोषण, बाल शोषण, यौन शोषण, श्रम शोषण और सांस्कृतिक शोषण - जाने कितने रूप है आदिवासियों पर ढाए जाने वाले कुलीन समाज के अत्याचारों के! बेजुबान मासूम आदिवासी बालिकाओं को देह व्यापार में धकेलने वाली इस सभ्यता पर व्यंग्य करते हुए निर्मला पुतुल कहती है -
“मेरा सब कुछ अप्रिय है
उनकी नज़र में
प्रिय है तो बस
मेरे पसीने से पुष्ट हुए अनाज के दाने
जंगल के फूल
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