पाँच अंधों की कहानी तुमने सुनी होगी। उन्होंने 'हाथी कैसा होता है' – यह जानना चाहा। एक ने हाथी के पैर को छूकर कहाः 'हाथी तो खम्भे जैसा है।' दूसरे ने कहाः 'पूँछ जैसा है', तीसरे ने कहाः 'सूँड जैसा है', चौथे ने कहाः 'गड्डे जैसा है', पाँचवें ने कान छूकर कहा कि 'सूप जैसा है'। अब जिन्होंने सच्चे हाथी को जानना चाहा और आँख नहीं होने से हाथी का सही वर्णन नहीं कर पाये, वे लोग चित्र के हाथी का क्या वर्णन कर पायेंगे ! उसी प्रकार कोई दुनिया के सब शास्त्र पढ़ ले, दुनिया के सब रीति रिवाज निभा ले फिर भी उसे बिना सदगुरू के परमात्मा का साक्षात्कार नहीं हो सकता है। समुद्र का पूरा पानी एक आदमी की प्यास बुझा नहीं सकता है। पूरा समुद्र पड़ा है लेकिन समुद्र किनारे आदमी प्यासे होते हैं क्योंकि वे समुद्र का पानी पी नहीं सकते। उसकी न दवाई बनती है, न खिचड़ी बनती है, न आँख में डाला जाता है।
दवाई की पूरी दुकान एक आदमी का रोग दूर नहीं कर सकती है। वैद्य हो, मरीज को क्या बीमारी है यह उसे पता हो और कौन सी दवा कितना काम करेगी इस प्रकार समझदारी से विचारकर यदि वह उसी दुकान से दवाई उठाकर ओर खुराक दे दे तो मरीज ठीक हो जायेगा। ऐसे ही शास्त्र, पद्धतियाँ, रीति-रिवाज सब दवाइयों की दुकानें हैं और सदगुरू हैं वैद्य।
सारा समुद्र खारा है। उस जल को मेघ उठाता है, फिर बरसात करता है। खारापन हटा देता है और साररूप अमृत जैसा पानी दे देता है। फिर वह पानी अमृत जैसा ही क्यों न हो, जैसा पात्र है वैसा उसका परिणाम आता है। सड़कों पर बरसता है लीद बह जाती है, डीजल के दाग थोड़े धुल जाते हैं। खेत में पड़ता है तो ज्वार-बाजरे की फसल हो जाती है, गन्ने की फसल में पड़ता है तो गन्ना बन जाता है, स्वाति नक्षत्र में सीप में पड़ता है तो मोती बन जाता है, गटर में पड़ता है तो कीचड़ बन जाता है.... जैसा पात्र वैसा उसका रूप हो जाता है।
ऐसे ही सदगुरूओं की वाणी जलवृष्टि – न्यायेन होती है। अथाह शास्त्रों के सागर से वे ज्ञानामृत उठाते हैं फिर बरसाते हैं। उसे ग्रहण करने वालों की जैसी पात्रता होती है, वैसा वैसा परिणाम आता है।
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