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14 March 2016

आपका बंटी मन्नू भंडारी का एक बहुत ही रोचक उपन्यास है...

Download karem yaham se एक:   ममी ड्रेसिंग टेबुल के सामने बैठी तैयार हो रही हैं। बंटी पीछे खड़ा चुपचाप देख रहा है। ममी जब भी कॉलेज जाने के लिए तैयार होती हैं, बंटी बड़े कौतूहल से देखता है। जान तो वह आज तक नहीं पाया, पर उसे हमेशा लगता है कि ड्रेसिंग टेबुल की इन रंग-बिरंगी शीशियों में, छोटी-बड़ी डिबियों में ज़रूर कोई जादू है कि ममी इन सबको लगाने के बाद एकदम बदल जाती हैं। कम से कम बंटी को ऐसा ही लगता है कि उसकी ममी अब उसकी नहीं रहीं, कोई और ही हो गईं।
पूरी तरह तैयार होकर, हाथ में पर्स लेकर ममी ने कहा, ‘‘देखो बेटे, धूप में बाहर नहीं निकलना, हाँऽ।’’ फिर फूफी को आदेश दिया। ‘‘बंटी जो खाए वही बनाना, एकदम बंटी की मर्ज़ी का खाना, समझीं।’’

चलने से पहले ममी ने उसका गाल थपथपाया। बालों में उँगलियाँ फँसाकर बड़े प्यार से बाल झिंझोड़ दिए। पर बंटी जैसे बुत बना खड़ा रहा। बाँह पकड़कर झूला नहीं, किसी चीज की फरमाइश नहीं की। ममी ने खींचकर उसे अपने पास सटा लिया। पर एकदम चिपककर भी बंटी को लगा जैसे ममी उससे बहुत दूर हैं।
और फिर वे सचमुच ही दूर हो गईं। उनकी चप्पल की खटखट जब बरामदे की सीढ़ियों पर पहुँची तो बंटी कमरे के दरवाज़े पर आकर खड़ा हो गया। और ममी जब फाटक खोलकर, सड़क पार करके, घर के ठीक सामने बने कॉलेज में घुसीं तो बंटी दौड़कर अपने घर के फाटक पर खड़ा हो गया। सिर्फ़ दूर जाती हुई ममी को देखने के लिए। वह जानता है, ममी अब पीछे मुड़कर नहीं देखेंगी। नपे-तुले क़दम रखती हुई सीधी चलती चली जाएँगी। जैसे ही अपने कमरे के सामने पहुँचेंगी चपरासी सलाम ठोंकता हुआ दौड़ेगा और चिक उठाएगा। ममी अंदर घुसेंगी और एक बड़ी-सी मेज़ के पीछे रखी कुर्सी पर बैठ जाएँगी। मेज़ पर ढेर सारी चिट्ठियाँ होंगी। फाइलें होगी। उस समय तक ममी एकदम बदल चुकी होंगी। कम से कम बंटी को उस कुर्सी पर बैठी ममी कभी अच्छी नहीं लगीं।

पहले जब कभी उसकी छुट्टी होती और ममी की नहीं होती, ममी उसे भी अपने साथ कॉलेज ले जाया करती थीं। चपरासी उसे देखते ही गोद में उठाने लगता तो वह हाथ झटक देता। ममी के कमरे के एक कोने में ही उसके लिए एक छोटी-सी मेज़-कुर्सी लगवा दी जाती, जिस पर बैठकर वह ड्राइंग बनाया करता। कमरे में कोई भी घुसता तो एक बार हँसी लपेटकर, आँखों ही आँखों में ज़रूर उसे दुलरा देता। तब वह ममी की ओर देखता। पर उस कुर्सी पर बैठकर ममी का चेहरा अजीब तरह से सख़्त हो जाया करता है। लगता है, मानो अपने असली चेहरे पर कोई दूसरा चेहरा लगा लिया हो। ममी के पास ज़रूर एक और चेहरा है। चेहरा ही नहीं, आवाज़ भी कैसी सख़्त हो जाती है! बोलती हैं तो लगता है जैसे डाँट रही हों। बंटी को ममी बहुत ही कम डाँटती हैं। बस, प्यार करती हैं इसीलिए यों सख़्त चेहरा लिए डाँटती, प्रिंसिपल की कुर्सी पर बैठी ममी उसे कभी अच्छी नहीं लगतीं।

वहाँ उसके और ममी के बीच में बहुत सारी चीज़ें आ जाती हैं। ममी का नक़ली चेहरा, कॉलेज, कॉलेज की बड़ी-सी बिल्डिंग, कॉलेज की ढेर सारी लड़कियाँ, कॉलेज के ढेर सारे काम ! थोड़ी-थोड़ी देर में बजनेवाले घंटे, घंटा बजने पर होनेवाली हलचल...इन सबके एक सिरे पर वह रहता है चुपचाप, सहमा-सा और दूसरे पर ममी रहती हैं-किसी को आदेश देती हुईं, किसी के साथ सलाह-मशवरा करती हुईं, किसी को डाँटती हुईं। और इसीलिए उसने कॉलेज जाना छोड़ दिया। घर में चाहे वह अकेला रह ले, पर वहाँ नहीं जाता। वहाँ किसके पास जाए ? ममी तो वहाँ रहती नहीं। रहती हैं बस एक प्रिंसिपल, जिनके चारों ओर बहुत सारे काम, बहुत सारे लोग रहते हैं। नहीं रहता है तो केवल बंटी।

थोड़ी देर तक बंटी गेट पर खड़े-खड़े आने-जानेवालों को यों ही देखता रहा। फिर लोहे के फाटक पर झूलने लगा। सामने से दो लड़के साइकिल पर बातें करते हुए गुज़र गए तो उसने सोचा, थोड़ा और बड़ा हो जाएगा तो वह भी दो पहिए की साइकिल खरीदेगा। वह जानता है, ममी उसे कभी बाहर निकलकर साइकिल नहीं चलाने देंगी। जाने क्यों, उन्हें हमेशा यही डर लगा रहता है कि वह बाहर निकला और एक्सीडेंट हुआ। हुँह ! वह ज़रूर बाहर चलाएगा। पुलिया पर जब बिना पैडिल मारे ही फर्राटे से साइकिल उतरती है तो कैसा मज़ा आता होगा ?

उसके बाद आँखों के सामने वे बड़े-बड़े मैदान तैर गए जो स्कूल जाते समय बस में से दूर-दूर दिखाई देते हैं। मैदान के दूसरे सिरे पर बनी हुई पहाड़ियाँ, जिनके पीछे से सूरज निकल-डूबकर दिन और रात करता है। कौन जाने उन पहाड़ियों की तलहटी में कोई साधू बैठा हो, जिसके पास जादू की खड़ाऊँ हों, जादू का कमण्डल हो। एक बार जाकर ज़रूर देखना चाहिए, पर जाए कैसे ? साइकिल मिलने से जाया जा सकता है। बस, किसी को बताए नहीं और चलता जाए, चलता चला जाए तो पहुँच ही सकता है। पर ममी को मालूम पड़ जाए तो...बाप रे…

ममी उसे बहुत ज़्यादा घर से बाहर नहीं जाने देती हैं। पर ममी को पता ही नहीं चल पाता है कि पलंग पर उनकी बगल में लेटे-लेटे वह उन साधुओं की तलाश में कहाँ-कहाँ घूमता है ? अनदेखे-अनजाने पहाड़ों में, जंगलों में... घाटियों में...
अब छुट्टी के दिन समझ ही नहीं आता, वह क्या करे ? एक बार यों ही बगीचे का चक्कर लगाया। मोगरे खूब महके हुए थे। एक-एक पौधे को उसने खूब प्यार से छुआ। फिर गिनकर देखा, कितनी नई कलियाँ खिली हैं। हर एक पौधे की फूल-पत्तियों का हिसाब-किताब उसके पास है। एक-दो पौधे की पत्तियाँ गंदी लगीं तो जल्दी से पाइप लेकर उनको धोया। कुछ इस ढंग से जैसे ममी सवेरे-सवेरे उसका मुँह धुलाती हैं।
‘‘बस, हो गए साफ़। चलो, अब हवा से झूलो।’’
भीतर आया तो कमरे में घुसते ही नज़र ड्रेसिंग-टेबुल पर गई। वही रंग-बिरंगी शीशियाँ ! और ममी का वही सख़्त चेहरा याद आ गया...रूखा-रूखा और एकदम बदला हुआ। कैसे बदल जाता है चेहरा ? और तब न जाने कितनी बातें एक साथ दिमाग़ में घुमड़ने लगीं।

‘‘तुम यहाँ खड़े-खड़े क्या कर रहे हो बंटी भय्या ? चलकर नहा काहे नहीं लेते ?’’ हाथ में झाडू लिए-लिए फूफी घुसी तो बंटी ने झा़डू छीन लिया और उसके हाथ पर झूलता हुआ बोला, ‘‘फूफी, वह कहानी सुनाओ तो सोनल रानी की, जो सचमुच में डायन थी और रानी बनकर रहती थी।’’
‘‘एल्लो, और सुनो ! यह कहानी कहने-सुनने का बखत है ! काम सारा पड़ा है, और तुम्हें कहानी सूझ रही है। कहानी रात में सुनी जाती है, दिन में नहीं।’’
‘‘नहीं मैं अभी सुनूँगा। कोई काम-वाम नहीं।’’ फिर आँखों में जाने कितना कौतूहल भरकर पूछा, ‘‘अच्छा फूफी, वह डायन से रानी कैसे बन जाती थी ? उसके पास जादू था ?’’

‘‘और क्या तो ? डायन थी, सारे जादू बस में कर रखे थे। बस, जो चाहती बन जाती। मन होता वैसा भेष धर लेती।’’
‘‘क्यों फूफी, आदमी भी चाहे तो ऐसा कर सकता है ?’’
‘‘कइसे कर लेगा आदमी ? आदमी के बस में क्या जादू होता है ?’’
‘‘तुमने डायन देखी है फूफी ? कैसी होती होगी ? जब आदमी के भेष में होती होगी तब तो कोई पहचान भी नहीं सकता होगा।’’ बंटी की आँखों में जाने कैसे-कैसे चित्र तैरने लगे।
‘‘अरे, हमने नहीं देखी कोई डायन-वायन, तुम चलकर नहा लो।’’

‘‘नहीं, अभी नहीं नहाता।’’ और बंटी पीछे के आँगन में आया तो झम-झम करती सोनल रानी भी साथ आ गई। सतमंज़िले महल में रहनेवाली, सात सौ दास-दासियों से घिरी सोनल रानी। ऐसा रूप कि न लोगों ने देखा, न सुना। राजा तो जैसे प्राण देते। कोई भला देखता भी कैसे ? वह रूप क्या कोई आदमी का था ? वह तो डायन का जादू था।
फिर धीरे-धीरे कहानी की एक पूरी दुनिया खुलती चली जाती। भेड़ बनाकर रखे हुए राजकुमार...मैना बनाकर रखी हुई राजकुमारी...ऐसा कुछ होता ज़रूर है, जिससे आदमी भेष बदल लेता है।
बंटी फिर भीतर गया। चुपचाप ड्रेसिंग टेबुल के पास जाकर शीशियों को उठा-उठाकर देखने लगा। एक बार मन हुआ अपने मुँह पर भी लगा देखे। क्या उसका चेहरा भी ममी की तरह बदल जाएगा ?

‘‘यह क्या ? फिर तुम ड्रेसिंग-टेबुल पर पहुँच गए ?’’ फूफी खड़ी हँस रही थी। बंटी एकदम सकपका गया। ‘‘हम कहते हैं, यही सौख रहे तुम्हारे तो बड़े होकर तुम ज़रूर लड़की बन जाओगे।’’
‘‘मारूँगा मैं, फिर वही गंदी बात कही तो !’’ बंटी हाथ उठाकर अपनी झेंप गुस्से में छिपाने लगा।
फूफी भी अजब है ! ममी कभी प्यार करते हुए उसे गोद में बिठा लेंगी या अपने साथ लिटाकर कहानी सुनाएँगी...तो हमेशा उसे ऐसे ही चिढ़ाएँगी...

‘‘तुम अभी तक माँ की गोद में चिपककर बैठते हो ? छि:-छि:, तुम तो एकदम लड़की हो बंटी भय्या !’’
‘‘देख लो ममी, यह फूफी...’’
पर ममी है कि फूफी को कुछ नहीं कहतीं। बस, हँसती रहती हैं, क्योंकि उस समय घर में जो रहती हैं ममी ! वह भी एकदम ममी बनी हुई। कॉलेज में हो तो पता लगे इस फूफी को। ऐसी घुड़की मिले कि सारा चिढ़ाना भूल जाए।
‘‘मेरा तो बेटा भी यही है और बेटी भी यही है।’’ हँसती हुई ममी उसे अपने से और ज़्यादा सटा लेती हैं।
उस समय फूफी के सामने माँ की बाहों से छूटकर भागने के लिए वह ज़रूर कसमसाता रहता है, पर यों उसे ममी की गोद में बैठना, उनके साथ सटकर सोना अच्छा लगता है। सोने से पहले ममी उसे रोज़ कहानी सुनाती हैं...राजा-रानी की, परियों की। ऐसे-ऐसे राजकुमारों की, जो अपनी माँ को बहुत प्यार करते थे और अपनी माँ के लिए बड़े-बड़े समुद्र तैर गए थे, ऊँचे-ऊँचे पहाड़ पार कर गए थे।

फिर ममी उसके गाल सहलाते हुए पूछतीं, ‘‘अच्छा, बता तू मेरे लिए इतना सब करेगा बड़ा होकर या निकाल बाहर करेगा...हटाओ बुढ़िया को, बोर करती है।’’
‘‘धत्, ममी को कभी नहीं छोडूँगा।’’

तब ममी निहाल होकर उसे बाँहों में भर लेतीं और उसके गालों पर ढेर सारे किस्सू देतीं। फिर पता नहीं छत में क्या देखने लगतीं। बस, फिर देखती ही रह जातीं और उसे लगता जैसे उसके और ममी के बीच में फिर कहीं कोई आ गया है। पर कौन ? यह वह न समझ पाता। ममी के चेहरे पर गहराती हुई उदासी की परतें उसे कहीं हलके-से बेचैन कर देतीं। उसका मन करता कि ममी को पक्की तरह समझा दे कि वह उन्हें कब्भी-कब्भी नहीं छोड़ेगा। पर कैसे ? और जब कुछ भी समझ में नहीं आता तो वह ममी के गले में हाथ डालकर लिपट जाता।
तभी फूफी की बात याद आ जाती है। हुँह ! फूफी बकवास करती है। कहीं ममी को प्यार करने से या कि ममी के साथ सोने से कोई लड़का लड़की बन जाता होगा भला !
‘‘तुम नहा लो बंटी भय्या ! कहो तो हम नहला दें ?’’
‘‘नहीं, अपने-आप नहाऊँगा। बड़ी आई नहलानेवाली  !’

‘‘तो जाओ अपने आप नहाओ। हम कपड़ा-वपड़ा निकालकर रख देते हैं।’
‘‘अभी नहीं नहाता, जब मर्ज़ी आएगी नहाऊँगा।’’ फूफी को लेकर अभी भी गुस्सा भरा हुआ है।
बंटी ने अपनी अलमारी खोली। ममी के खरीदे हुए और पापा के भेजे हुए खिलौनों से अलमारी भरी हुई है। उसने नई वाली बंदूक निकाली, खूब बड़ी-सी। और एकदम आँगन में झाड़ू लगाती हुई फूफी का पीठ में नली लगा दी। बोला, ‘‘अब कहेगी कभी लड़की, कर दूँ शूट ? गोली से उड़ा दूँगा, हाँ, याद रखना !’’
बंटी जब बहुत लाड़ में होता है या बहुत नाराज़ तो फूफी को तू ही कहता है।
‘‘और क्या, अब तुम बंदूक ही तो मारोगे...इसी दिन के लिए तो पाल-पोसकर बड़ा किया है।’’

तब पता नहीं क्यों ममी की कोई बात याद आ गई और बंटी का हाथ अपने-आप हट गया।
ख़याल आया, उसने अपनी बंदूक टीटू को तो दिखाई ही नहीं। उसके मुकाबले में टीटू के पास बहुत कम खिलौने हैं, फिर भी ऐसी शान लगाता है जैसे लाट साहब हो। उस दिन कैरम-बोर्ड दिखा-दिखाकर कितना इतरा रहा था। वह ममी से कहकर अपने लिए भी कैरम-बोर्ड खरीदेगा। और नहीं तो इस बार पापा आएँगे तो उनसे लेगा।
पिछली बार पापा जिस दिन आए थे, उसी दिन उसका रिज़ल्ट निकला था। कितने खुश हुए थे पापा उसका रिज़ल्ट देखकर ! खूब प्यार किया था, शाबाशी दी थी और ढेर सारी चीज़ें दिलवाई थीं।
इस बार कब आएँगे पापा ?
‘‘यह किधर चले ?’’ उसे पिछले दरवाज़े से बाहर जाता देख फूफी चिल्लाई।
‘‘मैं टीटू के यहाँ जा रहा हूँ, अभी आ जाऊँगा।’’
‘‘वही मत खेलने बैठ जाना, ममी गुस्सा होंगी नहीं तो। नहाया-धोया कुछ नहीं है।’’
बंटी दूर निकल आया। फूफी की तो आदत है, कुछ न कुछ बकते रहने की।

टीटू के घर के दरवाज़े पर आकर एक मिनट को झिझका। कहीं सबसे पहले टीटू की अम्मा ही न मिल जाए। कैसे बोलती हैं वे भी। एक दिन इसी तरह छुट्टी के दिन सवेरे-सवेर आ गया था तो बोलीं, ‘‘आ गए बंटी। छुट्टी के दिन तो तुम्हारा सूरज भी इसी घर में उगता है और इसी घर में डूबता है।’’ तो मन हुआ था कि उलटे पैरों लौट जाए।
ममी तो टीटू को कभी ऐसे नहीं कहतीं, चाहे वह सारे दिन रह ले। उसका बस चले तो वह कभी टीटू के घर नहीं जाए। वैसे भी उसे अपने ही घर में खेलना अच्छा लगता है। फूफी कहती है-घर में काहे नहीं अच्छा लगेगा ? ऐसी लाट साहबी करने को और कहाँ मिलती है बच्चों को !

टीटू से कितना कहा कि तू ही आ जाया कर छुट्टी के दिन, पर शाम के पहले वह कभी आता ही नहीं। घर में ही खेलता रहता है...बिन्दा है, शन्नो है...हुँह। कहने दो कहती हैं तो। बंदूक दिखाकर अभी लौट भी जाऊँगा। मैं वहाँ रूकूँगा ही नहीं। और सूरज तो अब कभी का उग गया।
बरामदे में ही टीटू की अम्मा बैठी तरकारी काट रही हैं। क्षण-भर को पाँव ठिठक गए। न भीतर को जाते बना, न लौटते।
‘‘कौन, बंटी ! आओ। अरे बड़ी ज़ोरदार बंदूक ले रखी है। इत्ती बड़ी किसने दिलवाई ?’’
‘‘पापा ने।’’

‘‘ऐं ! आए थे क्या पापा ?’’
‘‘नहीं, किसी के साथ भिजवाई थी।’’ एकाएक स्वर की खुशी जैसे बुझ गई। मन हुआ अम्मा के सीने में ही दाग दे बंदूक। जब देखो तब वही बात।
बंटी भीतर दौड़ गया।
टीटू शन्नो के साथ बैठा-बैठा कैरम खेल रहा था। बंटी ने चुपचाप उसकी पीठ पर बंदूक की नली लगाई और ज़ोर से चिल्लाया, ‘‘हैंड्स अप !’’ टीटू एकदम डर गया तो बंटी खिलखिला पड़ा....‘‘कैसा डराया

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