नयी कविता
नयी कविता-आंदोलन का आरंभ इलाहाबाद की साहित्यिक संस्था परिमल के कवि लेखकों-जगदीश गुप्त,रामस्वरुप चतुर्वेदी और विजय देवनरायण साही के संपादन में १९५४ में प्रकाशित "नयी कविता" पत्रिका से माना जाता है। इससे पहले अज्ञेय के संपादन में प्रकाशित काव्य-संग्रह 'दूसरा सप्तक' की भूमिका तथा उसमें शामिल कुछ कवियों के वक्तव्यों मे अपनी कवितओं के लिये 'नयी कविता' शब्द को स्वीकार किया गया था।
यह भी कहा जा सकता है कि प्रयोगवाद के बाद हिंदी कविता की जो नवीन धारा विकसित हुई, वह नई कविता है। नई कविता भारतीय स्वतंत्रता के बाद लिखी गई उन कविताओं को कहा गया, जिनमें परंपरागत कविता से आगे नये भावबोधों की अभिव्यक्ति के साथ ही नये मूल्यों और नये शिल्प-विधान का अन्वेषण किया गया। नई कविता नाम आज़ादी के बाद लिखी गई उन कविताओं के लिए रूढ हो गया, जो अपनी वस्तु-छवि और रूप-छवि दोनों में प्रगतिवाद और प्रयोगवाद का विकास होकर भी विशिष्ट है।कथ्यगत विशेषताएँ
नई कविता के लिए जगत्-जीवन से संबंधित कोई भी स्थिति, संबंध, भाव या विचार कथ्य के रूप में त्याज्य नहीं है। जन्म से लेकर मरण तक आज के मानव-जीवन का जिन स्थितियों, परिस्थितियों, संबंधों, भावों, विचारों और कार्यों से साहचर्य होता है, उन्हें नई कविता ने अभिव्यक्त किया है। नए कवि ने किसी भी कथ्य को त्याज्य नहीं समझा है। कथ्य के प्रति नई कविता में स्वानुभूति का आग्रह है। नया कवि अपने कथ्य को उसी रूप में प्रस्तुत करना चाहता है, जिस रूप में उसे वह अनुभूत करता है। नई कविता वाद-मुक्ति की कविता है। इससे पहले के कवि भी प्रायः किसी न किसी वाद का सहारा अवश्य लेते थे। और यदि कवि वाद की परवाह न करें, किन्तु आलोचक तो उसकी रचना में काव्य से पहले वाद खोजता था-वाद से काव्य की परख होती थी। किन्तु नई कविता की स्थिति भिन्न है। नया कवि किसी भी सिद्धांत, मतवाद, संप्रदाय या दृष्टि के आग्रह की कट्टरता में फँसने को तैयार नहीं। संक्षेप में, नई कविता कोई वाद नहीं है, जो अपने कथ्य और दृष्टि में सीमित हो। कथ्य की व्यापकता और सृष्टि की उन्मुक्तता नई कविता की सबसे बड़ी विशेषता है। नई कविता परंपरा को नहीं मानती। मनुष्यों में वैयक्तिक भिन्नता होती है, उसमें अच्छाईयाँ भी हैं और बुराईयाँ भी। नई कविता के कवि को मनुष्य इन सभी रूपों में प्यारा है। उसका उद्देश्य मनुष्य की समग्रता का चित्रण है। नई कविता जीवन के प्रति आस्था की रखती है। आज की क्षणवादी और लघुमानववादी दृष्टि जीवन-मूल्यों के प्रति स्वीकारात्मक दृष्टि है। नई कविता में जीवन का पूर्ण स्वीकार करके उसे भोगने की लालसा है। जीवन की एक-एक अनुभूतियों को, व्यथा को, सुख को, सत्य मानकर जीवन को सघन रूप से स्वीकार करना क्षमों को सत्य मानना है। नई कविता ने जीवन को न तो एकांगी रूप में देखा।, न केवल महत् रूप में, उसने जीवन को जीवन के रूप में देखा। इसमें कोई सीमा निर्धारित नहीं की। जैसे- दुःख सबको माँजता है, और, चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना न जाने, किन्तु-जिसको माँजता है, उन्हें यह सीख देता है कि, सबको मुक्त रखें। (अज्ञेय) नई कविता में दो तत्व प्रमुख हैं- अनुभूति की सच्चाई और बुद्धिमूलक यथार्थवादी दृष्टि। वह अनुभूति क्षण की हो या एक समूचे काल की, किसी सामान्य व्यक्ति की हो या विशिष्ट पुरूष की, आशा की हो या निराशा की, अपनी सच्चाई में कविता के लिए और जीवन के लिए भी अमूल्य है। नई कविता में बुद्धिवाद नवीन यथार्थवादी दृष्टि के रूप में भी है और नवीन जीवन-चेतना की पहचान के रूप में भी। यही कारण है कि तटश्थ प्रयोगशीलता नई कविता के कथ्य और शैली-दोनों की विशेषता है। नया कवि अपने कथ्य के प्रति तटस्थ वृत्ति रखता है, क्योंकि उसका प्रयत्न वादों से मुक्त रहने का रहता है। इस विशेषता के कारण नई कविता में कथ्यों की कोई एक परिधि नहीं है। इसमें तो कथ्य से कथ्य की नई परतें उघड़ती आती हैं। कभी-कभी वह अपने ही कथनों का खण्डन भी कर देता है- ईमानदारी के कारण। नया कवि डूबकर भोगता है, किन्तु भोगते हुए डूब नहीं जाता। नई कविता जीवन के एक-एक क्षण को सत्य मानती है और उस सत्य को पूरी हार्दिकता और पूरी चेतना से भोगने का समर्थन करती है। अनुभूति की सच्चाई, जितना वह ले पाता है, उतना ही उसके काव्य के लिए सत्य है। नई कविता अनुभूतिपूर्ण गहरे क्षणों, प्रसंगों, व्यापार या किसी भी सत्य को उसकी आंतरिक मार्मिकता के साथ पकड़ लेना चाहती है। इस प्रकार जीवन के सामान्य से सामान्य दीखनेवाले व्यापार या प्रसंग नई कविता में नया अर्थ पा जाते हैं। नई कविता में क्षणों की अनुभूतियों को लेकर बहुत-सी मर्मस्पर्शी कविताएँ लिखी गई हैं। जो आकार में छोटी होती हैं किन्तु प्रभाव में अत्यंत तीव्र। नई कविता परंपरा को नहीं मानती। इन कवियों ने परंपरावादी जड़ता का विरोध किया है। प्रगतिशील कवियों ने परंपरा की जड़ता का विरोध इसलिए किया है कि वह लोगों को शाषण का शिकार बनाती है और दुनिया के मजदूरों तथा दलितों को एक झंड़े के नीचे एकत्र होने में बाधा डालती है। नया कवि उसका विरोध इसलिए करता है कि उसके कारण मानव-विवेक कुंठित हो जाता है। नई कविता सामाजिक यथार्थ तथा उसमें व्यक्ति की भूमिका को परखने का प्रयास करती है। इसके कारण ही नई कविता का सामाजिक यथार्थ से गहरा संबंध है। परंतु नई कविता की यथार्थवादी दृष्टि काल्पनिक या आदर्शवादी मानववाद से संतृष्ट न होकर जीवन का मूल्य, उसका सौंदर्य, उसका प्रकाश जीवन में ही खोजती है। नई कविता द्विवेदी कालीन कविता, छायावाद या प्रगतिवाद की तरह अपने बने-बनाये मूल्यलादी नुस्ख़े पेश नहीं करती, बल्कि वह तो उसे जीवन की सच्ची व्यथा के भीतर पाना चाहती है। इसलिए नई कविता में व्यंग्य के रूप में कहीं पुराने मूल्यों की अस्वीकृति है, तो कहीं दर्द की सच्चाई के भीतर से उगते हुए नए मूल्यों की संभावना के प्रति आस्था। नई कविता ने धर्म, दर्शन, नीति, आचार सभी प्रकार के मूल्यों को चुनौती दी है। नई कविता का स्वर अपने परिवेश की जीवनानुभूति से फूटा है। नई कविता में शहरी जीवन और ग्रामीण-जीवन-दोनों परिवेशों को लेकर लिखनेवाले कवि हैं। अज्ञेय ने दोनों पर लिखा है। जबकि बालकृष्ण राव, शमशेर बहादुर सिंह, गिरिजाकुमार माथुर, कुँवरनारायण सिंह, धर्मवीर भारती, प्रभाकर माचवे, विजयदेवनारायण साही, रघुवीर सहाय आदि कवि की संवेदनाएँ और अनुभूतियाँ शहरी परिवेश की हैं तो दूसरी ओर भवानीप्रसाद मिश्र, केदारनाथ सिंह, शंभुनाथ सिंह, ठाकुरप्रसाद सिंह, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल आदि ऐसे कवि हैं जो मूलतः गाँव की अनुभूतियाँ और संवेदना से जुड़े हैं। इनके अतिरिक्त उसमें जहाँ घुटन, व्यर्थता, ऊब, पराजय, हीन-भाव, आक्रोश हैं, वहीं आत्मपीड़न परक भावनाएँ भी हैं। नई कविता का परिवेश अपने यहाँ का जीवन है। किन्तु उस पर आक्षेप है कि उसमें अतिरिक्त अनास्था, निराशा, व्यक्तिवादी कुंठा और मरणधर्मिता है। जो पश्चिम की नकल से पैदा हुई है। नई कविता में पीड़ा और निराशा को कहीं-कहीं जीवन का एक पक्ष न मानकर समग्र जीवन-सत्य मान लिया गया है। वहाँ पीड़ा जीवन की सर्जनात्मक शक्ति न बनकर उसे गतिहीन करनेवाली बाधा बऩ गई है। लोक-संपुक्ति नई कविता की एक खास विशेषता है। वह सहज लोक-जीवन के करीब पहुँचने का प्रयत्न कर रही है।
शिल्पगत विशेषताएँ
नई कविता ने लोक-जीवन की अनुभूति, सौंदर्य-बोध, प्रकृत्ति और उसके प्रश्नों को एक सहज और उदार मानवीय भूमि पर ग्रहण किया। साथ ही साथ लोक-जीवन के बिंबों, प्रतीकों, शब्दों और उपमानों को लोक-जीवन के बीच से चुनकर उसने अपने को अत्यधिक संवेदनापूर्ण और सजीव बनाया। कविता के ऊपरी आयोजन नई कविता वहन नहीं कर सकती। वह अपनी अन्तर्लय, बिंबात्मकता, नवीन प्रतीक-योजना, नये विशेषणों के प्रयोग, नवीन उपमान में कविता के शिल्प की मान्य धारणाओं से बाकी अलग है। नई कविता की भाषा किसी एक पद्धति में बँधकर नहीं चलती। सशक्त अभिव्यक्ति के लिए बोलचाल की भाषा का प्रयोग इसमें अधिक हुआ है। नई कविता में केवल संस्कृत शब्दों को ही आधार नहीं बनाया है, बल्कि विभिन्न भाषाओं के प्रचलित शब्दों को स्वीकार किया गया है। नए शब्द भी बनालिए गये हैं। टोये, भभके, खिंचा, सीटी, ठिठुरन, ठसकना, चिडचिड़ी, ठूँठ, विरस,सिराया, फुनगियाना – जैसे अनेक शब्द नई कविता में धड़ल्ले से प्रयुक्त हुए हैं। जिससे इसकी भाषा में एक खुलापन और ताज़गी दिखाई देती है। इसकी भाषा में लोक-भाषा के तत्व भी समाहित हैं। नई कविता में प्रतीकों की अधिकता है। जैसे- साँप तुम सभ्य तो हुए नहीं, न होंगे, नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया। एक बात पूँछु? उत्तर दोगे! फिर कैसे सीखा डँसना? विष कहाँ पाया? (अज्ञेय) नई कविता में बिंब भी विपुल मात्रा में उपलब्ध है। नई कविता की विविध रचनाओं में शब्द, अर्थ, तकनीकी, मुक्त आसंग, दिवास्वप्न, साहचर्य, पौराणिक, प्रकृति संबंधी काव्य बिंब निर्मित्त किए गये हैं। जैसे- सामने मेरे सर्दी में बोरे को ओढकर, कोई एक अपने, हाथ पैर समेटे, काँप रहा, हिल रहा,-वह मर जायेगा। (मुक्तिबोध) नई कविता में छंद को केवल घोर अस्वीकृति ही मिली हो-यह बात नहीं, बल्कि इस क्षेत्र में विविध प्रयोग भी किये गये हैं। नये कवियों में किसी भी माध्यम या शिल्प के प्रति न तो राग है और न विराग। गतिशालता के प्रभाव के लिए संगीत की लय को त्यागकर नई कविता ध्वनि-परिवर्तन की ओर बढ़ती गई है। एक वर्ण्य विषय या भाव के सहारे उसका सांगोपांग विवरण प्रस्तुत करते हुए लंबी कविता या पूरी कविता लिखकर उसे काव्य-निबंध बनाने की पुरानी शैली नई कविता ने त्याग दी है। नई कविता के कवियों ने लंबी कविताएँ भी लिखी हैं। किन्तु वे पुराने प्रबंध काव्य के समानान्तर नहीं है। नई कविता का प्रत्येक कवि अपनी निजी विशिष्टता रखता है। नए कवियों के लिए प्रधान है सम्प्रेषण, न कि सम्प्रेषण का माध्यम। इस प्रकार हम देखते हैं कि नई कविता कथ्य और शिल्प-दोनों ही दृष्टियों से महत्वपूर्ण उपलब्धि है।
लंबी कविता का कद : नहीं होती कहीं भी खत्म कविता नहीं होती
समकालीन बोध एवं यथार्थ के प्रति अतिरिक्त रूझान, समाजेतिहासिक स्थितियों की गहरी समझ के परिणाम स्वरूप लंबी कविता का आर्विभाव हुआ। लगभग ऐसी ही परिवर्तनिकामी स्थितियों के अधीन अंग्रेजी के विख्यात कवि विलियम वडर्सवर्थ के समय ‘लांग प्रोथम’ प्रभावी रूप से अंगेजी साहित्य में उपस्थित हुई। भारत में आधुनिकता के आगमन के साथ स्वार्थबध्द जनविरोधी राजनीतिक प्रदीर्घ नीतियों, कार्यवाहियों के कारण जीवन के सभी क्षेत्रों में अनैतिकता का बोलबाला बढ़ा। इसी से उपजी व्यक्ति की निराशा एवं कुंठा के लंबे मानवीय संघर्ष के समानात्तर लंबी कविता की विकास यात्रा का मूल्यांकन इस कॉलम का मख्य ध्येय है। प्रत्येक युग का सशक्त कवि अपनी अभिव्यक्ति के लिए सर्वथा नवीन काव्य रूप का संघात कर युग का संवाहक बनता है। निराला प्रसाद, अज्ञेय और मक्तिबोध की लंबी कविताएं आधुनिक अर्थात पूँजीवादी समाज के अन्तर्विरोधों की कविता है।
समकालीन बोध एवं यथार्थ के प्रति अतिरिक्त रूझान, समाजेतिहासिक स्थितियों की गहरी समझ के परिणाम स्वरूप लंबी कविता का आर्विभाव हुआ। लगभग ऐसी ही परिवर्तनिकामी स्थितियों के अधीन अंग्रेजी के विख्यात कवि विलियम वडर्सवर्थ के समय ‘लांग प्रोथम’ प्रभावी रूप से अंगेजी साहित्य में उपस्थित हुई। भारत में आधुनिकता के आगमन के साथ स्वार्थबध्द जनविरोधी राजनीतिक प्रदीर्घ नीतियों, कार्यवाहियों के कारण जीवन के सभी क्षेत्रों में अनैतिकता का बोलबाला बढ़ा। इसी से उपजी व्यक्ति की निराशा एवं कुंठा के लंबे मानवीय संघर्ष के समानात्तर लंबी कविता की विकास यात्रा का मूल्यांकन इस कॉलम का मख्य ध्येय है। प्रत्येक युग का सशक्त कवि अपनी अभिव्यक्ति के लिए सर्वथा नवीन काव्य रूप का संघात कर युग का संवाहक बनता है। निराला प्रसाद, अज्ञेय और मक्तिबोध की लंबी कविताएं आधुनिक अर्थात पूँजीवादी समाज के अन्तर्विरोधों की कविता है।
राकेश श्रीमाल
'शक्ति की करो मौलिक कल्पना' -- संतोष भदौरिया
काव्य रूप का सर्वाधिकार व्यापक उपकरण है - काव्य रूप। काव्य रूप से अभिप्राय काव्य की उस विशिष्ट रूपरेखा अथवा बाह्य रूपाकार से है, जिसके अन्तर्गत वह एक विशिष्ट रचनापद्धति का अनुसरण करता है। काव्य रूप का निर्धारण काव्य के विषय रचियता के व्यक्तित्व एवं जीवन परिवेश से अनिवार्यत: प्रभावित होता है। प्रत्येक कृति का अपना निजी एवं विशिष्ट रूपाकार होता निश्चित है। अतएव समग्रत: काव्य रूप से अभिप्राय काव्य-भेद के अनुकुल रचना पद्धति अथवा रचना प्रणाली का है। दरअसल किसी भी रचनाकार की रचना का विवेचन उसके रूपात्मक अध्ययन के बिना अधूरा ही कहा जाएगा। कवि के मानस को प्रभावित करने वाले कारक काव्य रूपों के परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। 'शक्ति की करो मौलिक कल्पना' -- संतोष भदौरिया
आधुनिक जीवन-बोध के अत्यधिक दबाव में हुए अनिवार्य बृहत्तर परिवर्तनों के फलस्वरूप लंबी कविता जैसा काव्य रूप सामने आया। प्रबन्ध काव्य के विकल्प के रूप में आया यह काव्यरूप प्रबन्ध की अपेक्षाओं का समूचा नकार नहीं करता। समकालीन बोध और यथार्थ के प्रति अतिरिक्त आग्रह समाजेतिहासिक स्थितियों की गहरी समझ की उजास में लंबी कविता संभव हुई है। वह आधुनिक युग की देन है। तथा वह पूँजीवादी समाज के अन्तर्विरोधों की कविता है। अचिति, नाटकियता, विचार बिंब आदि की केन्द्रीयता, अंतहीन अंत, सर्जनात्मक तनाव और विधायक आधार लंबी कविता के विशिष्ट संरचनात्मक गुण है।
निराला की कविता ‘राम की शक्तिपूजा’ से सभार
सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ हिन्दी कविता के कालजयी कवि हैं, और कालजयी कवि की पहचान इस बात से होती है कि उसने अपने युग जीवन की केन्द्रीय समस्या को कितनी दूर तक पहचाना है। छापावादी दौर के कुहासे के बावजूद निराला अपने समय और समाज की विडम्बनाओं की ओर स्पष्ट संकेत करते है। निराला की लंबी कविताएं उनकी महत्वपूर्ण काव्योपलब्धि है। निराला पहले ऐसे कवि है जिन्होंने लंबी कविता को काव्य रूप के रूप में हिन्दी कविता में संभव बनाया तथा उसके ढॉंचे में बिंबधर्मी संयोजन और नाटकीय तनाव का सर्वप्रथम सार्थक उपयोग किया। निराला की लंबी कविताओं की काव्य चिंता में एक समानता है, किन्तु रूप के स्तर पर उनमें विविधता मिलती है। उनकी लंबी कविताएं छायावाद का अतिक्रमण करती है तथा एक नया काव्य रूप उपलब्ध कराती है। उनकी लगभग सभी लंबी कविताओं में एक कथा तत्व विद्यमान है, जिसके आधार पर हम उनकी लंबी कविताओं को ‘कथात्मक लंबी कविताएं’ भी कह सकते है। उन्होंने कविता के लिए पुरानी कथा का आथ्रय तो ग्रहण किया है, किन्तु उसमें सर्वथा नवीन अर्थ को समाहित किया है। उन्होंने अपनी लंबी कविताओं में अलग – अलग तरीके से अपनी रचनात्मकता के वैविध्य का साक्षात्कार कराया है।
निराला की लंबी कविताएं कध्य के स्तर पर ही भिन्नता नही रखती अपितु शिल्प के धरातल पर भी उनमें रूपात्मक वैविध्य देखा जा सकात है। ओजस्वी भाषण कला, सम स्मरण शिल्प, विवरण प्रधानता, बिंबात्मक शैती आदि शिल्प के अनेक रुप उनकी कविताओं में खोजे जा सकते हैं। भाषा संरचना की दृष्टि से निराला की लंबी कविताओं में वैविध्य है। तत्समता, आवेश उठान, आभिजात्य गठन और लय का सुन्दर प्रयोग उनकी कविताओं में मिलता है। सघन बिंबात्मकता उनका विशेषगुण है। उनकी कविताओं में जीवन संघर्ष का मार्मिक चित्रण और बाहरी संसार में घट रही परिस्थितियों की सूक्ष्म झलक भी दिखाई देती है। उनकी लंबी कविताएं आगे के कवियों के लिए औती उपस्थित करती है। निराला की महत्वपूर्ण काव्योपलब्धियों में लंबी कविताएं स्वतंत्र रूप से विचारणीय है। इन कविताओं की अर्न्तवस्तु और इनका तंत्र या रूपात्मक ढांचा छायावाद की सीमाओं का अतिक्रमण करता है और आगे की कविता के लिए आदर्श उपस्थित करता है। रूपात्मक वेविध्य की दृष्टि से राम की शक्ति पूजा, सरोज स्मृति, तुलसीदास का कुकुरमुत्ता, पंचवटी प्रसंग, यमुना के प्रति इन सभी कविताओं का ढांचा विषय रुपात्मक है। कभी – कभी एक ही कविता के रूप के भीतर अनेक रूप देखे जा सकते हैं। इसके साथ ही उनमें एक नाटकीय संतुलन भी उल्लेखनीय है। उनकी लंबी कविताओं की प्रबन्धात्मकता प्रबंन्ध के ढांचे का पुनराविष्कार है। उनका संगठन क्लासिकी है, यद्यपि इनमें रोमांटिकता का निषेध नहीं है। उनकी सभी लंबी कविताएं छायावाद या स्वछन्दतावाद और यथार्थवाद के तनाव में नया काव्य रूप उपलब्ध करती है। इनका महत्व इसलिए भी है कि इनके भीतर निराला के जीवन संघर्ष का मार्मिक साक्ष्य मिलता है और बाहरी संसार में घट रही परिस्थितियों की सूक्ष्म झलक भी मिलती है।
निराला की लंबी कविताएं परंपरागत अर्थ में प्रबन्ध के स्थापत्य का नमूना नही है तथा इनको सिर्फ कथा काव्य की कोटि में भी नहीं रखा जा सकता है। क्योंकि इनकी इतिवृत्तात्मकता संपूर्ण रुप में कही भी सुरक्षित नहीं है। प्रक्षेप की घुसपैठ इन कविताओं में देखी जा सकती है, चाहे वह कवि के व्यक्तित्व का प्रक्षेप हो, उसके निजी आत्म साक्षात्कार का, संघर्षो का अथवा भाषा की लयपूर्ण बिबांत्मकता का। इन्ही प्रक्षेपों के परिणामस्वरूप निराला की लंबी कविताएं परंपरागत प्रबन्धात्मकता से अलग पहचान बनाती है। भारतीय काव्य शास्त्र के अन्तर्गत प्रबन्ध काव्य को खण्डकाव्य महाकाव्य जैसे शीर्षक के अन्तर्गत विभाजित किया गया है, उसमें ‘लंबी’ जैसा शब्द कहीं देखने में नहीं आता। आज की कविता के संदर्भ में अगर इस बात पर विचार करें तो वह पुराने निश्चित अर्थो में प्रबन्धकाव्य के अन्तर्गत नहीं रखी जा सकती। वस्तुत: निराला की ल्रबी कविताएं गध्य के वृतान्त और कविता के भावोद्रेग को समेटने और समन्वित करने के परिणाम स्वरूप पैदा हुई हैं। ये कविताएं खण्ड काव्य या प्रबन्ध रचनाएं नहीं है। उनकी कविताओं में कथातत्व मौजूद है और किसी भी कविता में आख्यान का आधार नहीं छोडा गया है। ‘सरोज स्मृति’ इसका अपवाद है, जिसमें किसी कथा तत्व का सहारा नहीं लिया गया। अन्य सभी लंबी कविताओं में किसी न किसी रूप में दूरवर्ती या निकट अतीत का कोई न कोई पौराण्कि , ऐतिहासिक या लोक आख्यात विद्यमान है। निराला ने इन कविताओं में पुरानी कथा को सुरक्षित रखते हुए उसके अन्दर सर्वधा नए अर्थ की सूक्ष्म प्रतिष्ठा करने की कोशिश की है और इसी नए अर्थ की प्रतिष्ठा के फलस्वरूप निराला की ल्रबी कविताएं पारंपरिकता से अलग अपनी पहचान बनाती है।
निराला ने अपनी लंबी कविताओं में जिस नूतन अर्थ की प्रतिष्ठा करने का प्रयास किया है, उनमें निराला के अपने समय की सामाजिक, नैतिक एवं ऐतिहासिक समस्याओं और निर्णयों को प्रतिष्ठान करने का उतना आग्रह नजर नहीं आता जितना इन कविताओं में आत्म साक्षात्कार का प्रयत्न। इनमें निराला की अन्तरमुखी वैयक्तिकता को ही प्रमुखता प्राप्त हुई है। उनकी सभी लंबी कविताएं प्रकारांत्तर से आत्म चरितात्मक कही जा सकती है। इनमें उन्होंने अलग – अलग भूमि पर विभिन्न तरीके से अपनी रचनात्मकता के विभिन्न पहलुओं का ही साक्षात्कार किया है। उनकी कविताएं कवि की रचना प्रक्रिया को परिभाषित करने, उसे समझने, इसके अंग-उपांगों को रेखांकित करने, उसकी सीमा और परिधि को पहचानने, उसके दायित्व और दर्द झेलने के अनूठे प्रयत्नों के साक्षात्कार का ही परिणाम है। उन्होंने इतिवृत्त और कथा के माध्यम से अपनी रचनात्मकता को अभिव्यक्ति प्रदान की है। सरोज स्मृति निराला की अव्यक्त महतवपूर्ण कविता है जिसमें कवि के व्यक्तिगत जीवन की त्रासदी युवा पुत्री की असमय मृत्यु के कठोर अनुभव के रुप में अभिव्यक्त हुई है। जो वास्तविक दुनिया की जटिलता से भी दो चार हुई है। राम की शक्तिपूजा के केन्द्र में भी वास्तविक दुनिया है जो व्यक्गित जीवन के कठोर संघर्ष के निरंतर संपर्क में है। निराला की लंबी कविता ‘बनवेला’ को कवि की आपबीती का आख्यान कहा गया है, जिस अर्थ में उनकी अनेक कविताएं आत्मपरक है। इसमें कवि के वास्तविक जीवन और विशेष रूप से साहित्यिक जीवन के संघर्ष के अनुभव सामने आते है।
भाषा को परिभाषित करते हुए निराला ने लिखा है कि ‘रचना युध्द कौशल है और भाषा तदनुरूप अस्त्र। उनकी भाषा का स्त्रोत एक नहीं रहा। उनकी भाषा कबीर की भांति विस्तुत और वैविध्यपूर्ण है। उनके काव्य में भाषा के विविध घरातल है। उनकी कविता ‘राम की शक्तिपूजा’ में भाषा का युध्द कौशल देखा जा सकता है जिसमें भाषा के तदनुरुपिणी होने पर जोर देते हैं। यही कारण है कि उनके पूर्ववर्ती और परवर्ती काव्य में विचारधारा की भिन्नता के साथ भाषा के भावनुरुपिणी होने पर जोर देते हैं। यही कारण है कि उनके पूर्ववर्ती और परवर्ती काव्य में विचारधारा की भिन्नता के साथ भाषा में भी पर्याप्त अन्तर आ गया है। उनके प्रारंभिक काव्य की भाषा में गाम्भीर्य और जटिलता है तथा परवर्ती काव्य की भाषा अधिक सरल और मुहावरेदार है। निराला में काव्य भाषा को लेकर गहरी बेचैनी थी जो विविध भाषा रूपों में मुखरित हुई है। उनकी भाषा की विविधरूपता उनकी संवेदना को उजागर करती है, और उनके उन्मुक्त काव्य व्यक्तित्व को भी प्रमाणित करती है। जिसके कारण वे अपने को किसी एक भाषा रूप से बांधते नहीं, वरन् काव्यभाषा के विविध स्त्रोंतो से रचनात्मक उन्मेष को गतिशीलता प्रदान करते हैं। तत्सम शब्दावली पर आधारित समास- बहुल क्लिष्ट शब्द योजना में उनका गहरा अध्यवसाय और शिल्पी रूप सामने आया है। निराला की ऐसी भाषा कादम्बरीकार का स्मरण दिलाती है, जिसके समासयुक्त पद अनेक पृष्ठों तक चले गए है। दूसरा रुप वह है जहां तत्सम शब्द भाषा के प्रवाह में स्वाभाविक रूप से आ गए है। तुलसीदास में इसी प्रकार की संस्कृत बहुल भाषा है। तत्सम शब्द प्रयोग ने उनकी भाषा को दुरुह और कठिन बनाया है वही प्रान्तीय एवं विदेशी शब्दों के प्रयोग ने भाषा को सहजता प्रदान की है।
निराला की लंबी कविता ‘कुकुरमुत्ता’ इसका उत्तम उदाहरण है। अंग्रेजी और उर्दू के शब्दों का प्रयोग व्यंग्य की आक्रत्मकता को सीधा सपाट या लक्षणात्मक बनाने के लिए किया गया है। उपयुक्त शब्दों के प्रयोग से कवि की अभिव्यक्ति में कुशलता और सम्प्रेषणीयता आती है। ‘सरोज स्मृति’ की पंक्ति ‘धन्य, मैं पिता निरर्थक था’ में निरर्थक शब्द नितान्त सार्थक है। भावों के अनुकूल शब्दों की योजना से कविता में संपूर्ण वातावरण का ध्वनिचित्र उपस्थित होता है। शब्द स्वयं बोलते प्रतीत होते हैं। निराला काव्य के कला चिधान के प्रति प्रर्याप्त सतर्क दिखाई देते हैं। संधि और समास का प्रयोग निराला के कठिन भावों को व्यक्त करने हेतु किया है। विराम चिन्हों के प्रयोग से उनके काव्य में नाटकीयता, चमत्कार, ओज में तीव्रता, भावात्मकता तथा भाव में परिवर्तन आदि का संयोजन हुआ है। कला के प्रति सजगता के कारण निराला के व्यक्तित्व का प्रभाव उनकी भाषा पर है उनकी भाषा भ्रव्य-उदात्त तथा विराट है। तथा भाषा एवं भाव में सम्यक समानता है।
काव्य भाषा के प्रमुख विधायक तत्व बिंब का बहुत और भरपूर प्रयोग निराला की लंबी कविताओं में हुआ है। उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा ने सुकुमार कोमल और परूष विराट दोंनो प्रकार की बिंब सृष्टि की है। उनका संश्लिष्ट इन्द्रियबोध, गोचर-आगोचर वस्तु का पूर्ण चित्र प्रस्तुत करता है, उसकी गंध सूंघता है, ध्वनि संगीत का श्रवण करता है, शब्दों को सुनता है और उसे मूर्तिवत्ता प्रदान करता है। निराला आत्मप्रकाशन के लिए विभिन्न उपकरणों को लेते हैं और अनुभूति को कल्पना से संयुक्त कर गंभीर एवं उदात्त रूप प्रस्तुत करतें हैं। उनके बिंब विराट और उदात्त हैं वह विराटता के उपासक हैं। राम की शक्तिपूजा में राम के दृढ़ जटा-मुकुट विपर्यस्त होकर, प्रतिलट से खुलकर पृष्ठ, बाहुओं और वक्ष पर फैल गए हैं जो प्रकारान्तर से राम की मानसिक पराजय और अस्तव्यस्तता के परिचायक है। ऐसे दुविधाग्रस्त राम की मानसिक पराजय और उसमें विहित हल्की आशा को कवि ने क्रमश: दुर्गम पर्वत पर उतरते हुए विपुल नैशांधकार और दूर कहीं पार चमकती ताराओं कें बिंब में अंकित किया है। दुर्गम पर्वत विपुल नैशांधकार और दूर कहीं पार चमकती ताराएं महत्वाकांक्षी मानस की बेचैनी और क्षीण आशा को पूरी काव्यात्मक गरिमा के साथ अभिव्यक्ति देती है। सुकुमार प्रसंग में नियोजित बिंब की दृष्टि सें सरोज स्मृति उल्लेखनीय है। अपने यौवन की अनुभूति से उत्पन्न उल्लास और लज्जा की विरोधी तथा स्वाभाविक स्थिति को पुत्री सरोज की दृष्टि अंकन में कवि ने संस्पर्श किया है। अपार भोगावती (पाताल गंगा) का ऊर्ध्व की ओर संवेग उमड़ना, किन्तु पृथ्वी को निश्चित सीमा रूपी बांध का बंधन-यह है विराट प्राकृतिक सत्य, जिसे कवि ने अनजाने हर्ष और लज्जा से परिपूर्ण तारूण्य की मन:स्थिति से जोड़ दिया
वस्तु और बिंब का पारस्परिक संघटन निराला के अनेक बिंब प्रयोंगो में देखा जा सकता है। काव्य भाषा की द्रवणशीलता ऐसे प्रयोगो में खासतौर से उभरती है। संघटित बिंब प्रयोंगो में प्रस्तुत-अप्रस्तुत के व्देत को निरसन अनिवार्य परिणति के रूप में समझना चाहिए। निराला ने अपनी लंबी कविताओं में बिंब विधान के पर्रपरित उपकरणों को लेने के बावजूद संदर्भ का नयापन उन्हें अभूतपूर्व ताजगी से भर देता है। हिन्दी काव्य परम्परा में ‘शतदल’ एक बहुप्रयुक्त अप्रस्तुत है किन्तु अपनी युवा पुत्री की मृत्यु से संतप्त कवि की विचलित मन:स्थिति के अंकन में वह भाषा को नई दीप्ति देता है। ‘हो भृष्ट शीत के से शतदल’ कहकर कवि अपनी क्षुब्ध मन:स्थिति में व्यर्थ प्रतीत होने वाले कार्यो के भृष्ट होने की कामना करता है। निस्सार लगने वाले कार्यो के प्रति विक्षोभ और आत्म-विष्वसनीयता के भावों को संवेध बनाने के लिए शीत के शतदल का बिंब नया और सटीक है। शब्द के लयात्मक बिंबों का प्रयोग निराला ने राम की शक्तिपूजा में करके उसके विवरण की सपाटता को झीना किया है। निराला में पद वाले बिंबों का अभाव है वास्तुत: यह सर्वधा एक नवीन प्रणाली है, जो आधुनिक जीवन के प्राय: प्रत्येक क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। निराला ऐसे पहले रचनाकार है जो पराजय में भ्ज्ञी विराटता के दर्शन करते हैं। जीवन की विराटता के उपासक निराला ने ही हिन्दी कविता में पहले-पहल लघुता के प्रति साहित्यिक दृष्टियात भी किया। बिंब विधान की एक नई दिशा का अनेषण किया। उनके बिंबों का विस्तार सूक्ष्म आदर्श से मूर्त यथार्थ तक तथा आसन्न लघु से सुदूर विराट तक फैला हुआ है। उनके बिंब निराला की लंबी कविताओं में खोजे जा सकते है। निराला की प्रतीक योजना आधुनिक प्रतीकवादी काव्य के समान गूढ़ और क्लिष्ट नहीं है। उन्होंने आध्यात्मिक राष्ट्रीय प्रेम विषयक एवं जनवादी भावों की अभिव्यक्ति के संदर्भ में मार्मिक प्रतीकों का प्रयोग किया है। निराला ने अपने प्रतीक प्रकृति और लोकमानस से गृहण किए है। उनकी लंबी कविताओं में प्राकृतिक और सांस्कृतिक दोंनो प्रकार के प्रतीकों का प्रयोग हुआ है। वे संस्कारी मन की उर्ध्वगमन की अवस्था को सांध्यकालीन सूर्य की लालिमा के प्रतीक व्दारा व्यक्त करते हैं। निराला प्रकृति के सौन्दर्य वर्णन से अवाक नहीं होते उससे भाव विस्तार करते हैं। उनके माध्यम से उदात्त भावों की अभिव्यक्ति के साथ निराला आध्यात्मिक विचारों की अभिव्यक्ति में भी प्रतीकों का सार्थक उपयोग करते हैं। राम की शक्तिपूजा की मनोवैज्ञानिकता और शक्ति के स्वरूप की विराट कल्पना की अभिव्यक्ति मे नवीन प्रतीकों की सर्जना करते हैं। लंबी कविता ‘कुकुर मुत्ता’ सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। निराला ने अपने प्रतीकों के माध्यम से लोक जीवन को असत से सत और तम से ज्योति का मार्ग दिखाने का प्रयास किया है। उनके प्रतीक न तो संतो की संध्या भाषा के जैसे हैं और न आधुनिक प्रतीकवादियों के तकनीकी प्रतीक। प्रतीक उनके काव्य का सहज भाव से अनुसरण करते हैं। यही कारण है कि निराला की कविता के अभीष्ट अर्थ को हम सहज व्यंजना शक्ति की सहायता से ग्रहण कर लेते हैं, उनमें किसी प्रकार की परिभाषिकता या जटिलता नहीं है। भावनाओं की तीव्रता को व्यक्त करने की जो क्षमता निराला के प्रतीकों मे है वहीं इनकी सफलता का मूलाधार है। प्रतीक निराला की लंबी कविताओं में सत्यान्वेषण का साधन रहा है जो हिन्दी के छायावादी काव्य में अव्दितीय है। निराला की लंबी कवीताओं में भाव संवेदना को प्रमुखता दी गई है, केवल भाषागत चमत्कृति को नहीं। सौन्दर्यसृष्टि में अंलकरण प्रवृत्ति अधिक विकसित होती है। निराला की संवेदनशीलता ने सौन्दर्य दृष्टि को और अधिक परिपुष्ट किया है। उनकी कविता में अलंकारों की चमत्कृतिजन्य नियोजना के सायास चित्र बहुत कम दिखाई देते है। निराला काव्य में अलंकारों की उपस्थिति आवश्यक मानते हैं। निराला ने अलंकारों के समुचित प्रयोग से लंबी कविताओं में सौन्दर्य की अभिवृद्दि की है। उनकी लंबी कविताओं में उपमा रूपक आदि सादृश्यमूलक अलंकारों का अधिक्य है। सरोज स्मृति मे कवि ने सरोज के यौवन का चित्रण करते हुए उसके स्वर को नववीणा पर गाए गए मालकौश से तथा धीरे धीरे परिवर्धमान यौवन को नैशस्वान से उपार्मत किया है। ‘तुलसीदास’ और ‘राम की शक्तिपूजा’ कविताओं में उपमानों की विराटता का आख्यान है। बिंब और वस्तु के संघटन की तरह निराला ने अलंकार को भाषा मे पर्यवसित करने की कोशिश की है। निराला की लंबी कवितांए एक समाज रचना प्रक्रिया की क्रियाशीलता की उपज है। उनमें विषयजगत एकान्तता को रेखांकित किया जा सकता है, किन्तु शिल्प के घरातल पर उनकी लंबी कवितांए अपने अलग – अलग स्वरूप में सामने आती है। छन्द के संदर्भ में वह सर्वस्वीकृत है कि हिन्दी में मुक्त छन्द के प्रवर्तक निराला है, उन्होंने ही हिन्दी में मुक्त छन्द की जोरदार वकालत की। उनकी कविताएं ‘पंचवटी प्रसंग’, ‘शिवाजी का पत्र’ स्वामी प्रेमानन्द जी महाराज आदि मुक्त छन्द में लिखी गई है। लेकिन छन्द प्रयोग की नवीनता के बावजूद विषय का उतना सूक्ष्म प्रयोग और नए अर्थ की उतनी अच्छी उदभावना और गहराई नहीं मिलती जितनी राम की शक्तिपूजा और तुलसीदास में जबकि ये दोनों कविताओं के लिए निराला ने परंपरागत छन्दों को तोड़कर दो नए धन्दों का निर्माण किया है। सरोज स्मृति भी एक छन्दबध्द रचना है, लेकिन इसका छन्द भी नवनिर्मित है।
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