श्री
रामकुमार आत्रेय की "मुफ्त
में ठगी"
शीर्षक
यह आधुनिक कविता विज्ञापन के
दुष्परिणाम और बाज़ारी सभ्यता
से उत्पन्न सामाजिक अशांति
की ओर संकेत करती है।उपभोक्तावाद
भारतीय संस्कृति और सभ्यता
के विकास के लिए चुनौती है।
सच कहें तो हम विज्ञापन के
मोहजाल में फँस गए हैं। मानसिक
तौर पर हम विज्ञापन के गुलाम
बन गए हैं। इसी कारण से असली
और नकली चीज़ों को पहचानने
में आज हम असमर्थ हैं। हमारी
निगाह गुणवत्ता पर नहीं है।
विज्ञापन की चकाचौंध में मानव
का तन-मन
स्तब्ध रह जाता है।
आज
बाज़ार से चीज़ें खरीदने पर
कुछ न कुछ मुफ्त में मिलता है।
चाय के पैकट के साथ एक कप,
साबुन
के पैकट के साथ एक चमच,
टूथपेस्ट
के साथ ब्रश आदि। कविता के
बूढ़े किसान ने एक बोरा बढ़िया
बीज और दो बोरे रासायनिक खाद
खरीदे। घर जाकर देखा तो उसने
पाया कि वह ठग गया है।
सचाई
का पता लगाने के लिए दूकान में
पहूँचे किसान से दूकानदार ने
कहा कि हमने उपहार के रूप में
तुम्हें ठगी दी है। इसके लिए
कोई पैसा नहीं लिया है। बेचारा
किसान शहर के झूठे छद्मों के
प्रति अनभिज्ञ था। वह बूढ़ा
किसान संतुष्ट होकर घर लौटा।
यहाँ आम ग्राहकों की वह मानसिकता
प्रकट होती है कि मुफ्त में
कुछ भी मिले फ़ायदा ही होता
है।
इस
कविता में बूढ़ा किसान देहाती
आम आदमी का प्रतिनिधि है।
किसान वर्ग औरों पर पूरा भरोसा
रखता है। यह उसका जन्मजात गुण
है। किसान के लिए बीज और खाद
नितांत ज़रूरी चीज़ें हैं,
खेती-बाड़ी
के अनिवार्य साधन । मुफ्त में
कुछ भी मिले,
उसे
भोला-भाला
किसान फ़ायदा ही फ़ायदा मानता
है। कोई और होता तो भी बड़ा
फर्क नहीं पड़ता।
उपभोक्तावादी
संस्कृति सौदागिरी के नए-नए
तंत्र गढ़ती है। विक्रेता
क्रेता को धोखा देता है।लेकिन
क्रेता को पता तक नहीं चलता
कि उसने धोखा खाया है। वह खुशी
महसूस करता है। आज ठगी एक उपहार
का रूप धारण कर चुकी है। उपहार
पर पैसा वसूल नहीं किया जाता,
ठगी पर
भी नहीं।
अशोकन जी की आस्वादन टिप्पणी थोड़ा संशोधन करके भेज रहा हूँ। धन्यवाद, रवि.
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