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06 January 2012

वापसी - उषा प्रियंवदा आधुनिकता बोध और उषा प्रियंवदा की कहानियाँ

 गजाधर बाबू ने कमरे में जमा सामान पर एक नज़र दौड़ाई -- दो बक्से, डोलची, बालटी -- ''यह डिब्बा कैसा है, गनेशी?'' उन्होंने पूछा। गनेशी बिस्तर बाँधता हुआ, कुछ गर्व, कुछ दु:ख, कुछ लज्जा से बोला, ''घरवाली ने साथ को कुछ बेसन के लड्डू रख दिए हैं। कहा, बाबूजी को पसन्द थे, अब कहाँ हम गरीब लोग आपकी कुछ खातिर कर पाएँगे।'' घर जाने की खुशी में भी गजाधर बाबू ने एक विषाद का अनुभव किया जैसे एक परिचित, स्नेह, आदरमय, सहज संसार से उनका नाता टूट रहा था।
''कभी-कभी हम लोगों की भी खबर लेते रहिएगा।'' गनेशी बिस्तर में रस्सी बाँधते हुआ बोला।
''कभी कुछ ज़रूरत हो तो लिखना गनेशी! इस अगहन तक बिटिया की शादी कर दो।''
गनेशी ने अंगोछे के छोर से आँखे पोछी, ''अब आप लोग सहारा न देंगे तो कौन देगा! आप यहाँ रहते तो शादी में कुछ हौसला रहता।''
गजाधर बाबू चलने को तैयार बैठे थे। रेल्वे क्वार्टर का वह कमरा, जिसमें उन्होंने कितने वर्ष बिताए थे, उनका सामान हट जाने से कुरूप और नग्न लग रहा था। आँगन में रोपे पौधे भी जान पहचान के लोग ले गए थे और जगह-जगह मिट्टी बिखरी हुई थी। पर पत्नी, बाल-बच्चों के साथ रहने की कल्पना में यह बिछोह एक दुर्बल लहर की तरह उठ कर विलीन हो गया।
गजाधर बाबू खुश थे, बहुत खुश। पैंतीस साल की नौकरी के बाद वह रिटायर हो कर जा रहे थे। इन वर्षों में अधिकांश समय उन्होंने अकेले रह कर काटा था। उन अकेले क्षणों में उन्होंने इसी समय की कल्पना की थी, जब वह अपने परिवार के साथ रह सकेंगे। इसी आशा के सहारे वह अपने अभाव का बोझ ढो रहे थे। संसार की दृष्टि से उनका जीवन सफल कहा जा सकता था। उन्होंने शहर में एक मकान बनवा लिया था, बड़े लड़के अमर और लड़की कान्ति की शादियाँ कर दी थीं, दो बच्चे ऊँची कक्षाओं में पढ़ रहे थे। गजाधर बाबू नौकरी के कारण प्राय: छोटे स्टेशनों पर रहे और उनके बच्चे तथा पत्नी शहर में, जिससे पढ़ाई में बाधा न हो। गजाधर बाबू स्वभाव से बहुत स्नेही व्यक्ति थे और स्नेह के आकांक्षी भी। जब परिवार साथ था, डयूटी से लौट कर बच्चों से हँसते-खेलते, पत्नी से कुछ मनोविनोद करते - उन सबके चले जाने से उनके जीवन में गहन सूनापन भर उठा। खाली क्षणों में उनसे घरमें टिका न जाता। कवि प्रकृति के न होने पर भी उन्हें पत्नी की स्नेहपूर्ण बातें याद आती रहतीं। दोपहर में गर्मी होने पर भी दो बजे तक आग जलाए रहती और मना करने पर भी थोड़ा-सा कुछ और थाली में परोस देती और बड़े प्यार से आग्रह करती। जब वह थके-हारे बाहर से आते, तो उनकी आहट पा वह रसोई के द्वार पर निकल आती और उनकी सलज्ज आँखे मुस्करा उठतीं। गजाधर बाबू को तब हर छोटी बात भी याद आती और उदास हो उठते। अब कितने वर्षों बाद वह अवसर आया था जब वह फिर उसी स्नेह और आदर के मध्य रहने जा रहे थे।
टोपी उतार कर गजाधर बाबू ने चारपाई पर रख दी, जूते खोल कर नीचे खिसका दिए, अन्दर से रह-रह कर कहकहों की आवाज़ आ रही थी, इतवार का दिन था और उनके सब बच्चे इकठ्ठे हो कर नाश्ता कर रहे थे। गजाधर बाबू के सूखे होठों पर स्निग्ध मुस्कान आ गई, उसी तरह मुस्कुराते हुए वह बिना खाँसे अन्दर चले आए। उन्होंने देखा कि नरेन्द्र कमर पर हाथ रखे शायद रात की फिल्म में देखे गए किसी नृत्य की नकल कर रहा था और बसन्ती हँस-हँस कर दुहरी हो रही थी। अमर की बहू को अपने तन-बदन, आँचल या घूंघट का कोई होश न था और वह उन्मुक्त रूप से हँस रही थी। गजाधर बाबू को देखते ही नरेंद्र धप-से बैठ गया और चाय का प्याला उठा कर मुँह से लगा लिया। बहू को होश आया और उसने झट से माथा ढक लिया, केवल बसन्ती का शरीर रह-रह कर हँसी दबाने के प्रयत्न में हिलता रहा।
गजाधर बाबू ने मुस्कराते हुए उन लोगों को देखा। फिर कहा, ''क्यों नरेन्द्र, क्या नकल हो रही थी?''
''कुछ नहीं बाबू जी।'' नरेन्द्रने सिर फिराकर कहा। गजाधर बाबू ने चाहा था कि वह भी इस मनो-विनोद में भाग लेते, पर उनके आते ही जैसे सब कुण्ठित हो चुप हो गए, उसे उनके मनमें थोड़ी-सी खिन्नता उपज आई। बैठते हुए बोले, ''बसन्ती, चाय मुझे भी देना। तुम्हारी अम्मा की पूजा अभी चल रही है क्या?''
बसन्ती ने माँ की कोठरी की ओर देखा, ''अभी आती ही होंगी'' और प्याले में उनके लिए चाय छानने लगी। बहू चुपचाप पहले ही चली गई थी, अब नरेन्द्र भी चाय का आखिरी घूँट पी कर उठ खड़ा हुआ। केवल बसन्ती पिता के लिहाज में, चौके में बैठी माँ की राह देखने लगी। गजाधर बाबू ने एक घूँट चाय पी, फिर कहा, ''बिट्टी - चाय तो फीकी है।''
''लाइए, चीनी और डाल दूँ।'' बसन्ती बोली।
''रहने दो, तुम्हारी अम्मा जब आएगी, तभी पी लूँगा।''
थोड़ी देर में उनकी पत्नी हाथ में अर्घ्य का लोटा लिए निकली और अशुद्ध स्तुति कहते हुए तुलसी को डाल दिया। उन्हें देखते ही बसन्ती भी उठ गई। पत्नी ने आकर गजाधर बाबू को देखा और कहा, ''अरे आप अकेले बैंठें हैं - ये सब कहाँ गए?'' गजाधर बाबू के मन में फाँस-सी करक उठी, ''अपने-अपने काम में लग गए हैं - आखिर बच्चे ही हैं।''
पत्नी आकर चौके में बैठ गई, उन्होनें नाक-भौं चढ़ाकर चारों ओर जूठे बर्तनों को देखा। फिर कहा, ''सारे में जूठे बर्तन पड़े हैं। इस घर में धरम-करम कुछ है नहीं। पूजा करके सीधे चौंके में घुसो।'' फिर उन्होंने नौकर को पुकारा, जब उत्तर न मिला तो एक बार और उच्च स्वर में फिर पति की ओर देख कर बोलीं, ''बहू ने भेजा होगा बाज़ार।'' और एक लम्बी साँस ले कर चुप हो रहीं।
गजाधर बाबू बैठ कर चाय और नाश्ते का इन्तज़ार करते रहे। उन्हें अचानक गनेशी की याद आ गई। रोज़ सुबह, पॅसेंजर आने से पहले यह गरम-गरम पूरियाँ और जलेबियाँ और चाय लाकर रख देता था। चाय भी कितनी बढ़िया, काँच के गिलास में उपर तक भरी लबालब, पूरे ढ़ाई चम्मच चीनी और गाढ़ी मलाई। पैसेंजर भले ही रानीपुर लेट पहुँचे, गनेशी ने चाय पहुँचाने में कभी देर नहीं की। क्या मजाल कि कभी उससे कुछ कहना पड़े।
पत्नी का शिकायत भरा स्वर सुन उनके विचारों में व्याघात पहुँचा। वह कह रही थी, ''सारा दिन इसी खिच-खिच में निकल जाता है। इस गृहस्थी का धन्धा पीटते-पीटते उमर बीत गई। कोई ज़रा हाथ भी नहीं बटाता।''
''बहू क्या किया करती हैं?'' गजाधर बाबू ने पूछा।
''पड़ी रहती है। बसन्ती को तो, फिर कहो कि कॉलेज जाना होता हैं।''
गजाधर बाबू ने जोश में आकर बसन्ती को आवाज़ दी। बसन्ती भाभी के कमरे से निकली तो गजाधर बाबू ने कहा, ''बसन्ती, आज से शाम का खाना बनाने की ज़िम्मेदारी तुम पर है। सुबह का भोजन तुम्हारी भाभी बनाएगी।'' बसन्ती मुँह लटका कर बोली, ''बाबू जी, पढ़ना भी तो होता है।''
गजाधर बाबू ने प्यार से समझाया, ''तुम सुबह पढ़ लिया करो। तुम्हारी माँ बूढ़ी हुई, अब वह शक्ति नहीं बची हैं। तुम हो, तुम्हारी भाभी हैं, दोनों को मिलकर काम में हाथ बँटाना चाहिए।''
बसन्ती चुप रह गई। उसके जाने के बाद उसकी माँ ने धीरे से कहा, ''पढ़ने का तो बहाना है। कभी जी ही नहीं लगता, लगे कैसे? शीला से ही फुरसत नहीं, बड़े बड़े लड़के है उस घर में, हर वक्त वहाँ घुसा रहना मुझे नहीं सुहाता। मना करू तो सुनती नहीं।''
नाश्ता कर गजाधर बाबू बैठक में चले गए। घर लौटा था और ऐसी व्यवस्था हो चुकी थी कि उसमें गजाधर बाबू के रहने के लिए कोई स्थान न बचा था। जैसे किसी मेहमान के लिए कुछ अस्थायी प्रबन्ध कर दिया जाता है, उसी प्रकार बैठक में कुरसियों को दीवार से सटाकर बीच में गजाधर बाबू के लिए पतली-सी चारपाई डाल दी गई थी। गजाधर बाबू उस कमरे में पड़े पड़े कभी-कभी अनायास ही इस अस्थायित्व का अनुभव करने लगते। उन्हें याद आती उन रेलगाडियों की जो आती और थोड़ी देर रुक कर किसी और लक्ष की ओर चली जाती।
घर छोटा होने के कारण बैठक में ही अब अपना प्रबन्ध किया था। उनकी पत्नी के पास अन्दर एक छोटा कमरा अवश्य था, पर वह एक ओर अचारों के मर्तबान, दाल, चावल के कनस्तर और घी के डिब्बों से घिरा था, दूसरी ओर पुरानी रजाइयाँ, दरियों में लिपटी और रस्सी से बाँध रखी थी, उनके पास एक बड़े से टीन के बक्स में घर-भर के गरम कपड़े थे। बींच में एक अलगनी बँधी हुई थी, जिस पर प्राय: बसन्ती के कपड़े लापरवाही से पड़े रहते थे। वह भरसक उस कमरे में नहीं जाते थे। घर का दूसरा कमरा अमर और उसकी बहू के पास था, तीसरा कमरा, जो सामने की ओर था। गजाधर बाबू के आने से पहले उसमें अमर के ससुराल से आया बेंत का तीन कुरसियों का सेट पड़ा था, कुरसियों पर नीली गद्दियाँ और बहू के हाथों के कढ़े कुशन थे।
जब कभी उनकी पत्नी को कोई लम्बी शिकायता करनी होती, तो अपनी चटाई बैढ़क में डाल पड़ जाती थीं। वह एक दिन चटाई ले कर आ गई। गजाधर बाबू ने घर-गृहस्थी की बातें छेड़ी, वह घर का रवय्या देख रहे थे। बहुत हलके से उन्होंने कहा कि अब हाथ में पैसा कम रहेगा, कुछ खर्चा कम करना चाहिए।
''सभी खर्च तो वाजिब-वाजिब है, न मन का पहना, न ओढ़ा।''
गजाधर बाबू ने आहत, विस्मित दृष्टि से पत्नी को देखा। उनसे अपनी हैसियत छिपी न थी। उनकी पत्नी तंगी का अनुभव कर उसका उल्लेख करतीं। यह स्वाभाविक था, लेकिन उनमें सहानुभूति का पूर्ण अभाव गजाधर बाबू को बहुत खटका। उनसे यदि राय-बात की जाती कि प्रबन्ध कैसे हो, तो उन्हें चिन्ता कम, संतोष अधिक होता लेकिन उनसे तो केवल शिकायत की जाती थी, जैसे परिवार की सब परेशानियों के लिए वही ज‍िम्मेदार थे।
''तुम्हे कमी किस बात की है अमर की माँ - घर में बहू है, लड़के-बच्चे हैं, सिर्फ़ रुपए से ही आदमी अमीर नहीं होता।'' गजाधर बाबू ने कहा और कहने के साथ ही अनुभव किया। यह उनकी आन्तरिक अभिव्यक्ति थी - ऐसी कि उनकी पत्नी नहीं समझ सकती।
''हाँ, बड़ा सुख है न बहू से। आज रसोई करने गई है, देखो क्या होता हैं?'' कहकर पत्नी ने आँखे मूँदी और सो गई। गजाधर बाबू बैठे हुए पत्नी को देखते रह गए। यही थी क्या उनकी पत्नी, जिसके हाथों के कोमल स्पर्श, जिसकी मुस्कान की याद में उन्होंने सम्पूर्ण जीवन काट दिया था? उन्हें लगा कि वह लावण्यमयी युवती जीवन की राह में कहीं खो गई और उसकी जगह आज जो स्त्री है, वह उनके मन और प्राणों के लिए नितान्त अपरिचिता है। गाढ़ी नींद में डूबी उनकी पत्नी का भारी शरीर बहुत बेडौल और कुरूप लग रहा था, श्रीहीन और रूखा था। गजाधर बाबू देर तक निस्वंग दृष्टि से पत्नी को देखते रहें और फिर लेट कर छत की ओर ताकने लगे।
अन्दर कुछ गिरा दिया शायद, और वह अन्दर भागी। थोड़ी देर में लौट कर आई तो उनका मुँह फूला हुआ था। ''देखा बहू को, चौका खुला छोड़ आई, बिल्ली ने दाल की पतीली गिरा दी। सभी खाने को है, अब क्या खिलाऊँगी?'' वह साँस लेने को रुकी और बोली, ''एक तरकारी और चार पराठे बनाने में सारा डिब्बा घी उंडेल रख दिया। ज़रा-सा दर्द नहीं हैं, कमानेवाला हाड़ तोडे और यहाँ चीज़ें लुटें। मुझे तो मालूम था कि यह सब काम किसी के बस का नहीं हैं।'' गजाधर बाबू को लगा कि पत्नी कुछ और रात का भोजन बसन्ती ने जान बूझ कर ऐसे बनाया था कि कौर तक निगला न जा सके।
गजाधर बाबू चुपचाप खा कर उठ गए पर नरेन्द्र थाली सरका कर उठ खड़ा हुआ और बोला, ''मैं ऐसा खाना नहीं खा सकता।''
बसन्ती तुनककर बोली, ''तो न खाओ, कौन तुम्हारी खुशामद कर रहा है।''
''तुमसे खाना बनाने को किसने कहा था?'' नरेंद्र चिल्लाया।
''बाबू जी ने।''
''बाबू जी को बैठे-बैठे यही सूझता है।''
बसन्ती को उठा कर माँ ने नरेंद्र को मनाया और अपने हाथ से कुछ बना कर खिलाया। गजाधर बाबू ने बाद में पत्नी से कहा, ''इतनी बड़ी लड़की हो गई और उसे खाना बनाने तक का सहूर नहीं आया।''
''अरे आता सब कुछ है, करना नहीं चाहती।'' पत्नी ने उत्तर दिया। अगली शाम माँ को रसोई में देख कपड़े बदल कर बसन्ती बाहर आई तो बैठक में गजाधर बाबू ने टोंक दिया, ''कहाँ जा रही हो?''
''पड़ोस में शीला के घर।'' बसन्ती ने कहा।
''कोई ज़रूरत नहीं हैं, अन्दर जा कर पढ़ो।'' गजाधर बाबू ने कड़े स्वर में कहा। कुछ देर अनिश्चित खड़े रह कर बसन्ती अन्दर चली गई। गजाधर बाबू शाम को रोज़ टहलने चले जाते थे, लौट कर आए तो पत्नी ने कहा, ''क्या कह दिया बसन्ती से? शाम से मुँह लपेटे पड़ी है। खाना भी नहीं खाया।''
गजाधर बाबू खिन्न हो आए। पत्नी की बात का उन्होंने उत्तर नहीं दिया। उन्होंने मन में निश्चय कर लिया कि बसन्ती की शादी जल्दी ही कर देनी है। उस दिन के बाद बसन्ती पिता से बची-बची रहने लगी। जाना हो तो पिछवाड़े से जाती। गजाधर बाबू ने दो-एक बार पत्नी से पूछा तो उत्तर मिला, ''रूठी हुई हैं।'' गजाधर बाबू को और रोष हुआ। लड़की के इतने मिज़ाज, जाने को रोक दिया तो पिता से बोलेगी नहीं। फिर उनकी पत्नी ने ही सूचना दी कि अमर अलग होने की सोच रहा हैं।
''क्यों?'' गजाधर बाबू ने चकित हो कर पूछा।
पत्नी ने साफ़-साफ़ उत्तर नहीं दिया। अमर और उसकी बहू की शिकायतें बहुत थी। उनका कहना था कि गजाधर बाबू हमेशा बैठक में ही पड़े रहते हैं, कोई आने-जानेवाला हो तो कहीं बिठाने की जगह नहीं। अमर को अब भी वह छोटा-सा समझते थे और मौके-बेमौके टोक देते थे। बहू को काम करना पड़ता था और सास जब-तब फूहड़पन पर ताने देती रहती थीं।
''हमारे आने के पहले भी कभी ऐसी बात हुई थी?'' गजाधर बाबू ने पूछा।
पत्नी ने सिर हिलाकर जताया कि नहीं, पहले अमर घर का मालिक बन कर रहता था, बहू को कोई रोक-टोक न थी, अमर के दोस्तों का प्राय: यहीं अड्डा जमा रहता था और अन्दर से चाय नाश्ता तैयार हो कर जाता था। बसन्ती को भी वही अच्छा लगता था।
गजाधर बाबू ने बहुत धीरे से कहा, ''अमर से कहो, जल्दबाज़ी की कोई ज़रूरत नहीं हैं।''
अगले दिन सुबह घूम कर लौटे तो उन्होंने पाया कि बैठक में उनकी चारपाई नहीं हैं। अन्दर आकर पूछने वाले ही थे कि उनकी दृष्टि रसोई के अन्दर बैठी पत्नी पर पड़ी। उन्होंने यह कहने को मुँह खोला कि बहू कहाँ है, पर कुछ याद कर चुप हो गए। पत्नी की कोठरी में झाँका तो अचार, रजाइयों और कनस्तरों के मध्य अपनी चारपाई लगी पाई। गजाधर बाबू ने कोट उतारा और कहीं टाँगने के लिए दीवार पर नज़र दौड़ाई। फिर उसपर मोड़ कर अलगनी के कुछ कपड़े खिसका कर एक किनारे टाँग दिया। कुछ खाए बिना ही अपनी चारपाई पर लेट गए। कुछ भी हो, तन आखिरकार बूढ़ा ही था। सुबह शाम कुछ दूर टहलने अवश्य चले जाते, पर आते-आते थक उठते थे। गजाधर बाबू को अपना बड़ा-सा, खुला हुआ क्वार्टर याद आ गया। निश्चित जीवन - सुबह पॅसेंजर ट्रेन आने पर स्टेशन पर की चहल-पहल, चिर-परिचित चेहरे और पटरी पर रेल के पहियों की खट्-खट् जो उनके लिए मधुर संगीत की तरह था। तूफ़ान और डाक गाडी के इंजिनों की चिंघाड उनकी अकेली रातों की साथी थी। सेठ रामजीमल की मिल के कुछ लोग कभी-कभी पास आ बैठते, वह उनका दायरा था, वही उनके साथी। वह जीवन अब उन्हें खोई विधि-सा प्रतीत हुआ। उन्हें लगा कि वह ज़िन्दगी द्वारा ठगे गए हैं। उन्होंने जो कुछ चाहा उसमें से उन्हें एक बूँद भी न मिली।
लेटे हुए वह घर के अन्दर से आते विविध स्वरों को सुनते रहे। बहू और सास की छोटी-सी झड़प, बाल्टी पर खुले नल की आवाज़, रसोई के बर्तनों की खटपट और उसी में गौरैयों का वार्तालाप - और अचानक ही उन्होंने निश्चय कर लिया कि अब घर की किसी बात में दखल न देंगे। यदि गृहस्वामी के लिए पूरे घर में एक चारपाई की जगह यहीं हैं, तो यहीं पड़े रहेंगे। अगर कहीं और डाल दी गई तो वहाँ चले जाएँगे।
यदि बच्चों के जीवन में उनके लिए कहीं स्थान नहीं, तो अपने ही घर में परदेसी की तरह पड़े रहेंगे। और उस दिन के बाद सचमुच गजाधर बाबू कुछ नहीं बोले। नरेंद्र माँगने आया तो उसे बिना कारण पूछे रुपए दे दिए बसन्ती काफी अंधेरा हो जाने के बाद भी पड़ोस में रही तो भी उन्होंने कुछ नहीं कहा - पर उन्हें सबसे बड़ा गम़ यह था कि उनकी पत्नी ने भी उनमें कुछ परिवर्तन लक्ष्य नहीं किया। वह मन ही मन कितना भार ढो रहे हैं, इससे वह अनजान बनी रहीं। बल्कि उन्हें पति के घर के मामले में हस्तक्षेप न करने के कारण शान्ति ही थी। कभी-कभी कह भी उठती, ''ठीक ही हैं, आप बीच में न पड़ा कीजिए, बच्चे बड़े हो गए हैं, हमारा जो कर्तव्य था, कर रहें हैं। पढ़ा रहें हैं, शादी कर देंगे।''
गजाधर बाबू ने आहत दृष्टि से पत्नी को देखा। उन्होंने अनुभव किया कि वह पत्नी व बच्चों के लिए केवल धनोपार्जन के निमित्तमात्र हैं।
जिस व्यक्ति के अस्तित्व से पत्नी माँग में सिन्दूर डालने की अधिकारी हैं, समाज में उसकी प्रतिष्ठा है, उसके सामने वह दो वक्त का भोजन की थाली रख देने से सारे कर्तव्यों से छुट्टी पा जाती हैं। वह घी और चीनी के डब्बों में इतना रमी हुई हैं कि अब वही उनकी सम्पूर्ण दुनिया बन गई हैं। गजाधर बाबू उनके जीवन के केंद्र नहीं हो सकते, उन्हें तो अब बेटी की शादी के लिए भी उत्साह बुझ गया। किसी बात में हस्तक्षेप न करने के निश्चय के बाद भी उनका अस्तित्व उस वातावरण का एक भाग न बन सका। उनकी उपस्थिति उस घर में ऐसी असंगत लगने लगी थी, जैसे सजी हुई बैठक में उनकी चारपाई थी। उनकी सारी खुशी एक गहरी उदासीनता में डूब गई।
इतने सब निश्चयों के बावजूद भी गजाधर बाबू एक दिन बीच में दखल दे बैठे। पत्नी स्वभावानुसार नौकर की शिकायत कर रही थी, ''कितना कामचोर है, बाज़ार की हर चीज़ में पैसा बनाता है, खाना खाने बैठता है तो खाता ही चला जाता हैं। ''गजाधर बाबू को बराबर यह महसूस होता रहता था कि उनके रहन सहन और खर्च उनकी हैसियत से कहीं ज्यादा हैं। पत्नी की बात सुन कर लगा कि नौकर का खर्च बिलकुल बेकार हैं। छोटा-मोटा काम हैं, घर में तीन मर्द हैं, कोई-न-कोई कर ही देगा। उन्होंने उसी दिन नौकर का हिसाब कर दिया। अमर दफ्तर से आया तो नौकर को पुकारने लगा। अमर की बहू बोली, ''बाबू जी ने नौकर छुड़ा दिया हैं।''
''क्यों?''
''कहते हैं, खर्च बहुत है।''
यह वार्तालाप बहुत सीधा-सा था, पर जिस टोन में बहू बोली, गजाधर बाबू को खटक गया। उस दिन जी भारी होने के कारण गजाधर बाबू टहलने नहीं गए थे। आलस्य में उठ कर बत्ती भी नहीं जलाई - इस बात से बेखबर नरेंद्र माँ से कहने लगा, ''अम्मा, तुम बाबू जी से कहती क्यों नहीं? बैठे-बिठाए कुछ नहीं तो नौकर ही छुड़ा दिया। अगर बाबू जी यह समझें कि मैं साइकिल पर गेंहूँ रख आटा पिसाने जाऊँगा तो मुझसे यह नहीं होगा।''
''हाँ अम्मा,'' बसन्ती का स्वर था, ''मैं कॉलेज भी जाऊँ और लौट कर घर में झाड़ू भी लगाऊँ, यह मेरे बस की बात नहीं हैं।''
''बूढ़े आदमी हैं'' अमर भुनभुनाया, ''चुपचाप पड़े रहें। हर चीज़ में दखल क्यों देते हैं?'' पत्नी ने बड़े व्यंग से कहा, ''और कुछ नहीं सूझा तो तुम्हारी बहू को ही चौके में भेज दिया। वह गई तो पंद्रह दिन का राशन पाँच दिन में बना कर रख दिया।'' बहू कुछ कहे, इससे पहले वह चौके में घुस गई। कुछ देर में अपनी कोठरी में आई और बिजली जलाई तो गजाधर बाबू को लेटे देख बड़ी सिटपिटाई। गजाधर बाबू की मुखमुद्रा से वह उनके भावों का अनुमान न लगा सकी। वह चुप, आँखे बंद किए लेटे रहे।
गजाधर बाबू चिठ्ठी हाथ में लिए अन्दर आए और पत्नी को पुकारा। वह भीगे हाथ लिए निकलीं और आँचल से पोंछती हुई पास आ खड़ी हुई। गजाधर बाबू ने बिना किसी भूमिका के कहा, ''मुझे सेठ रामजीमल की चीनी मिल में नौकरी मिल गई हैं। खाली बैठे रहने से तो चार पैसे घर में आएँ, वहीं अच्छा हैं। उन्होंने तो पहले ही कहा था, मैंने मना कर दिया था।'' फिर कुछ रुक कर, जैसी बुझी हुई आग में एक चिनगारी चमक उठे, उन्होंने धीमे स्वर में कहा, ''मैंने सोचा था, बरसों तुम सबसे अलग रहने के बाद, अवकाश पा कर परिवार के साथ रहूँगा। खैर, परसों जाना हैं। तुम भी चलोगी?'' ''मैं?'' पत्नी ने सकपकाकर कहा, ''मैं चलूंगी तो यहाँ क्या होग? इतनी बड़ी गृहस्थी, फिर सयानी लड़की।"
बात बीच में काट कर गजाधर बाबू ने हताश स्वर में कहा, ''ठीक हैं, तुम यहीं रहो। मैंने तो ऐसे ही कहा था।'' और गहरे मौन में डूब गए।
नरेंद्र ने बड़ी तत्परता से बिस्तर बाँधा और रिक्शा बुला लाया। गजाधर बाबू का टीन का बक्स और पतला-सा बिस्तर उस पर रख दिया गया। नाश्ते के लिए लड्डू और मठरी की डलिया हाथ में लिए गजाधर बाबू रिक्शे में बैठ गए। एक दृष्टि उन्होंने अपने परिवार पर डाली और फिर दूसरी ओर देखने लगे और रिक्शा चल पड़ा। उनके जाने के बाद सब अन्दर लौट आए, बहू ने अमर से पूछा, ''सिनेमा चलिएगा न?''
बसन्ती ने उछल कर कहा, ''भैया, हमें भी।''
गजाधर बाबू की पत्नी सीधे चौके में चली गई। बची हुई मठरियों को कटोरदान में रखकर अपने कमरे में लाई और कनस्तरों के पास रख दिया। फिर बाहर आ कर कहा, ''अरे नरेन्द्र, बाबू जी की चारपाई कमरे से निकाल दे, उसमें चलने तक को जगह नहीं हैं।''


आधुनिकता बोध और उषा प्रियंवदा की कहानियाँ

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            आधुनिकता का अभिप्राय है प्रत्येक विषयवस्तु में नयापन। यह नयापन विचारों के नयेपन का द्योतक है, जो निरंतर हमारे विचारों में गतिशील प्रक्रिया के रूप में अग्रसर होता है। आधुनिकता का आरंभ 18 वीं शती में औद्योगीकरण, पूँजीवादी व्यवस्था, अस्तित्ववादी दर्शन और दो-दो महायुद्धों के परिणाम स्वरूप पश्चिम में हुआ जिसका भारत में आगमन 20 वीं शताब्दी के आरंभ में हुआ ।
            ‘आधुनिकताबोध को समझने के लिए दो शब्दों आधुनिकताऔर बोधको समझना आवश्यक है। मानक हिन्दी कोश के अनुसार आधुनिकताशब्द का अर्थ है,थोड़े समय से प्रचलन में अथवा अस्तित्व में आया हुआ; जिस पर वर्तमान काल की धारणाओं की छाप पड़ी हुई है।1 बोधशब्द का अर्थ है, ज्ञान, जानकारी, भ्रम या अज्ञान का अभाव।2  इस प्रकार आधुनिकताबोध का अर्थ है वर्तमान का बोध, वर्तमान में अस्तित्व में आये ज्ञान और नवीन विचारों का बोध जो मनुष्य के भ्रमों को दूर करता है।
            आधुनिकता शब्द कालवाचक है। इसमें समय सापेक्षता का गुण है। प्रत्येक काल की आधुनिकता अपनी पूर्ववर्ती रूढियों का अतिक्रमण करती है, अतः वह परंपरा का विकास है। यही कारण है की आधुनिकता को एक निरंतर विकासशील प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है। रामधारी सिंह दिनकरका कथन है कि ‘‘जिसे हम आधुनिकता कहते हैं वह एक प्रक्रिया का नाम है। यह प्रक्रिया अंधविश्वासों से बाहर निकलने की प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया नैतिकता में उदारता बरतने की प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया बुद्धिवादी बनने की प्रक्रिया है। आधुनिकता वह है जो मनुष्य की ऊँचाई उसकी जाति या गोत्र नहीं, बल्कि उसके कर्म से नापता है। आधुनिक वह है जो मनुष्य-मनुष्य को समान समझे।’’ 3
            इस प्रकार आधुनिकता एक जीवन दृष्टि है जो अपने समय के समाज का युगानुरूप संस्कार करती है, पुरातन और शीथिल हो रहे बाह्य जीवन मूल्यों का विरोध करती है और युगसम्मत नवीन जीवन मूल्यों की स्थापना करती है। आधुनिकता विवेकयुक्त वैज्ञानिक दृष्टि से संबद्ध एक प्रश्नमूलक मानसिकता है जो प्रत्येक नवीन तथ्य, स्थिति अथवा मूल्य को तर्क की कसौटी पर कसकर ही स्वीकार करती है। वस्तुतः विज्ञान ने अनेक चमत्कार पूर्ण घटनाओं को जिसे मनुष्य पारलौकिक रहस्य से जोड़ता आया था, के पिछे छूपा यथार्थ का उदगाटन किया । औद्योगिक प्रगति ने मनुष्य को नगरों की ओर आकर्षित किया और कई सालों से संयुक्त परिवार में रहने वाले भारतीय व्तक्ति की स्थिति पारिवारिक बिखराव तक पहुँच गई। यंत्र की भाँति दौड़ते मनुष्य के जीवन से रागात्मकता समाप्तप्राय हो गई। परंपरागत मूल्यों और नैतिकता की अवधारणाएँ परिवर्तित हो गई और इससे उत्पन्न नई दृष्टि ने श्लीलता-अश्लीलता के प्रश्न को नया रूप दे दिया। अब सेक्स कोई आपराधिक प्रवृत्ति मात्र न रहकर मन की सहज आवश्यकता के रूप में प्रस्तुत होने लगी। आधुनिकता की इन्हीं परिणतियों के बीच जी रहा मनुष्य 
            हिन्दी की नई कहानी धारा को समृद्ध करने वाली लेखिकाओं में उषा प्रियंवदा का नाम सम्मान पूर्वक लिया जाता है। सन् 1950 ई के आस-पास लिखी जा रही ग्रामीण अँचल की कहानियों से प्रबुद्ध पाठक ऊब रहा था ऐसे समय में आधुनिक भावबोध से युक्त, अपने युग की प्रामाणिक अभिव्यक्ति करनेवाली, गंभीर एवं अर्थपूर्ण कहानियाँ लेकर उषा प्रियंवदा का नई कहानी के क्षेत्र में आगमन हुआ। पाश्चात्य आधुनिकतावादी दर्शन के प्रभाव से भारतीय महानगरीय जीवन में व्युत्पन्न आधुनिक प्रभाव और तत्त्कालीन युगबोध को उषा जी ने अपनी कहानियों का केन्द्र बिंदु बनाया। आधुनिकाता का सर्वाधिक प्रभाव नगर जीवन पर पड़ा, अतः उषा प्रियंवदा ने अपनी कहानियों को नगरीय जीवन से जोड़ा।
            आधुनिकता को तत्त्कालीन रूप में प्रस्तावित करने में मनोविश्लेशणवादी, उत्क्रान्तिवादी, मार्क्सवादी और अस्तित्ववादी विचारधाराओं ने मनुष्य के समक्ष अनेक प्रश्न खड़े कर दिये। वैज्ञानिक प्रगति के परिणाम स्वरूप मनुष्य बौद्धिक विश्लेषण करते हुए वस्तु सत्य पर बल देने लगा। मनुष्य ने यह तकनीक जब जीवन और समाज में लागू कर दी तब मनुष्य के जीवन की रागात्मकता और नैतिकता को गहरी चोट पहुँची। औद्यौगिक सभ्यता के विकास ने मनुष्य का मूल्य अर्थोपार्जन की परिपाटी पर आँका। इसमें असफल व्यक्ति निराशा, पीड़ा, टूटन और संत्रास का शिकार होने लगा। उषा प्रियंवदा का जिंदगी और गुलाब के फूल कहानी संग्रह इन्हीं आधुनिक भावभूमि का प्रामाणिक दस्तावेज बनकर पाठक के समक्ष प्रस्तुत हुआ है।
            ‘मोहबंध की अचला, आधुनिक नगरीय परिवेश में जीवन व्यतित कर रहे देवेन्द्र और नीलु जैसे चरित्रों से मिली निराशा के परिणाम स्वरूप उत्पन्न घुटन और कुंठा की शिकार है जो शादी कर लेने के बाद भी, अकेलेपन और अजनबीपन की समस्याग्रस्त जिंदगी जी रही है। विदेशी परिवेश और नगरों में जीने वाले मोहबंध के देवेन्द्र, नीलू और अचला जैसे चरित्रों में अस्थिरता के भी दर्शन होते है। न नीलू देवेन्द्र के प्रति प्रतिबद्ध रहती है और न देवेन्द्र अचला के प्रति। इन दोनों के प्रभाव से अचला का जीवन भी अस्थिर हो जाता है।
            नगरीय समाज में संबंधों की औपचारिकता के परिणाम स्वरूप उत्पन्न उदासी, अकेलापन और अजनबीपन का यथार्थ चित्रण छुट्टि का एक दिनकी माया के माध्यम से उषा जी ने किया है तो वहीं चाँद चलता रहाकी रोहिणी जीवन का अधिकांश समय महफिलों-पार्टियों में बीताने के बाद भी अपने जीवन में मरुस्थल-सा खालीपन महसूस करती है। इस जीवन में उसने क्या पाया तो पता चला कि यह लंबा अंतर मरुस्थल की तरह था।4
            आधुनिक बौद्धिकता और वैचारिकता के प्रभाव से मनुष्य ने अपनी परंपराओं, नैतिक-सामाजिक मूल्यों को नकार दिया, किंतु जीवन में मिली निष्फलता के समय इन्हीं मूल्यों के आलोक के अभाव में वह अनेक विसंगतियों और विडंबनाग्रस्त जीवन का भी अनुभव करता है। इस तत्त्कालीन युगबोध की अभिव्यक्ति जालेकहानी के द्वारा की गई है। उषा प्रियंवदा ने इस कहानी की नायिका को आधुनिक विचारोंवाली, भौतिकता को प्राधान्य देनेवाली, एक स्वतंत्र नारी के रूप में प्रस्तुत किया है। कहानी के आरंभ में पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त रहने की आकांक्षा करनेवाली कौमुदी पूरातन विचारों वाले राजेश्वर के साथ संपर्क में आती है और दोनों की शादी हो जाती है। फिर भी कौमुदी की भौतिक सुख-सुविधा का मोह नहीं छूट पाता है। परिणाम स्वरूप राजेश्वर स्वयं को मकड़ी के जाले में बंधा पाता है, जिसके तार दूर से बहुत सकुमार, बहुत आकर्षक लगते है।1 विलासिता की यह सब सामग्री राजशेखर को मानसिक शांति देने में असमर्थ है अतः उसके लिए यह सब व्यर्थ है। यूँ अतिशय बौद्धिकता और भौतिकता ने हमारे भावनात्मक संबंधों को भी रूक्ष बना दिया है।
            आधुनिक परिवेश में आर्थिक समृद्धि को महत्वपूर्ण स्थान मिला। मनुष्य का मूल्यांकन इसी मानदंड पर होने लगा। अतः मनुष्य येन-केन-प्रकरेण आर्थिक रूप से समृद्ध होने के लिए प्रयत्न करने लगा, जिसमें बाधा रूप नैतिकसामाजिक मूल्य हाशिये पर कर दिये गये; भावना, चेतना और संवेदना के स्तर में कमी आयी तथा तनाव और घुटन का व्याप बढता गया। आधुनिकता की इस परिणति का यथार्थ प्रस्तुतिकरण जिंदगी और गुलाब के फूल कहानी में हुआ है। परिवार का निर्वाह करने वाला सुबोध अपने आत्म-सम्मान पर चोट खाकर सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे देता है, किंतु बेकार होने के पश्चात उसकी स्थिति अपने ही परिवार में एक नौकर जैसी हो जाती है। सुबोध के यह शब्द तुम माँ-बेटी चाहती क्या ह? आज मैं बेकार हूँ तो मुझसे नौकरों-सा बरताव किया जाता है ! लानत है ऐसी जिंदगी पर।’’6 उसके दिल के उबाल और तनाव का प्रकाशन करते हैं। धनोपार्जन का केन्द्र बदलने से परिवार के निर्वाह में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आता किंतु सुबोध की पूरी ज़िंदगी बदल जाती है। उषा प्रियंवदा ने आधुनिक समय में अर्थ की प्रधानता के कारण जटिल बन गये मानव जीवन का प्रामाणिक दस्तावेज इस कहानी में प्रस्तुत किया है।
            पैरम्बुलेटर’, ‘कच्चे धागेऔर वापसीजैसी कहानियों में उषा प्रियंवदा ने आर्थिक समस्या से उत्पन्न पारिवारिक बिखराव, सानवीय संवेदना की उदासिनता, रागात्मक संबंधों में आयी कड़वाहट एवं व्यक्ति मन में उत्पन्न लघुता, हताशा और घुटन को बड़ी सूक्ष्मता से उजागर किया है।
            स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात चली प्रगति की दौड़ में पारिवारिक-सामाजिक मूल्य व्यापक स्तर पर आहत हुए। प्रेम, स्नेह, विश्वास मित्रता जैसे मूल्यों के अभाव से जीवन में आयी विषमता की स्थिति का अनुभवजन्य  प्रस्तुतीकरण उषा प्रियंवदा ने किया है। इस दृष्टि से वापसी कहानी उनकी सर्वश्रेष्ठ कहानी है। जिंदगी भर परिवार से दूर रहकर परिवार का निर्वाह करने के लिए रेल्वे की नौकरी करनेवाले गजाधर बाबू निवृत्त होकर वापस घर लौटते हैं, स्वयं को अपने ही घर में अकेला, अव्यवस्थित और मिसफिट पाते है। शहर में पढ़ी-लिखी उनकी संताने इस सीमा तक स्वतंत्र हो गई है कि अपनी पूर्व पीढ़ी को अवज्ञा और उपेक्षा के भाव से देखती हैं और अंततः स्थिति पारिवारिक बिखराव तक पहुँच जाती है। पारिवारिक मूल्यों की शिथीलता और दो पीढ़ियों के बीच आए वैचारिक परिवर्तन ने गजाधर बाबू को पुनः अन्य नौकरी खोजने के लिए मजबूर कर दिया। यह समस्या केवल गजाधर बाबू की ही नहीं है किंतु आधुनिक महानगरों में जी रहे प्रायः अधिकांश परिवारों की समस्या है, जिसका उषा प्रियंवदा ने गंभीरता से निरूपण किया है।
            आधुनिक विचारों के प्रभाव स्वरूप मनुष्य में जाग्रत अस्तित्व बोध ने नैतिकता, आध्यात्मिकता, पाप-पुण्य और भाग्य आदि में अनास्था व्यक्त की और इसके स्थान पर वैयक्तिक स्वच्छंदता, उपभोग की स्वतंत्रता, असामाजिकता, नास्तिकता और आचार-विरोध को प्राधान्य दिया। उषा प्रयंवदा ने अस्तित्व बोध की चेतना से युक्त ऐसे ही पात्रों का निर्माण किया है। यह पात्र पाप-पुण्य, भाग्य और कर्मफल में विश्वास न करनेवाले और वैचारिक स्वच्छंदता, उपभोग की स्वतंत्रता में आस्था रखने वाले आधुनिक मनुष्य का प्रतिनिधित्व करते हैं।मोहबंधकी नीलू ऐसी ही नारी है जो उन्मुक्त भोग में विश्वास रखती है। कालेज में वह अपनी सखी अचला के मित्र देवेन्द्र से रिश्ता जोड़ती है, तो शादी के पश्चात पार्टियों में घूमती रहती है। अपनी सुख-सुविधाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए वह लखपति मिल-मालिक के बेटे से शादी कर लेती है। सामाजिक बंधनों को तोड़ती हुई वहकुछ लोगों से बहुत कुछ अनुमव भी करती है। उषा प्रियंवदा के यह पात्र परंपरागत मान्यताओं और बंधनों को तोड़कर बेहतर जीवन जी ने के लिए यत्नशील है।
            आधुनिक प्रभाव ने मनुष्य के यौन संबंधी दृष्टिकोण में भी व्यापक परिवर्तन ला दिया है। यौन नैतिकता अब सेक्स की स्वाभाविक माँग में परिवर्तित हो गई है क्योंकि आधुनिक युग की आत्मनिर्भर नारी प्रेम को किसी आदर्श या पवित्रता के बंधन में बंधकर नहीं देखती। उषा जी की कहानियों के प्रायः सभी नगरीय पात्र सामाजिक मर्यादाओं से विद्रोह करते हुए जिंदगी को अपनी संपूर्णता में, स्वच्छंद रूप से जीने को लालायित नज़र आते हैं। तारा, रोहिणी, नीलू ऐसे ही चरित्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं। रोहीणी को उद्देश्य कर कहा गया निम्न कथन इसी ओर संकेत करता है- अभी किसी के साथ पंद्रह दिन शिमला रहकर आयी है, उसी ने दिये होंगे (कर्णफूल)।7 कंटीली छाँहके जगत बाबू बयालीस साल की उम्र में शादी करते है और पत्नी इन्द्रा के तीखे स्वभाव से तंग आकर कम्पाउन्डर की बीवी राधा से यौन संबंध भी स्थापित कर लेते है। इस कहानी में उषा जी ने राजी नामक चरित्र की दृष्टि से देखते हुए, इस सारे मसले को मनुष्य की यौन संबंधी एक अनिवार्य आवश्यकता से अधिक महत्व नहीं दिया। इस कहानी के द्वारा उषा प्रियंवदा ने दाम्पत्य संबंधों में विच्छेद और दाम्पत्य मूल्यों के ह्रास की आधुनिक परिणति को भी उठाया है।
              मनुष्य की स्वच्छंता और उन्मुक्त भोग की प्रवृत्ति ने उसके दाम्पत्य जीवन को गहराई से प्रभावित किया है। शादी के कुछ साल बाद ही अपने पति राजन से ऊब कर रात भर महफिलों में व्यस्त रहनेवाली नीलू और राजन के बीच एक अनकही दूरी आकार लेने लगती है। इसे महसूस करता हुआ राजन कहानी के अंत में नीलू की सहेली अचला की ओर आकर्षित होता है, वहीं अचला का अपना घर-संसार होने पर भी वह राजन के निकट आ जाती है, किंतु कहानी के अंत में वास्तविक परिस्थिति का बोध कराकर उषा जी ने अचला को राजन से अलग कर दिया है।
            मोहबंधकहानी नीलू और राजन के दाम्पत्य सम्बन्ध में आये अलगाव की अभिव्यक्ति करती है। जबकि अचला को दाम्पत्य जीवन के मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध दिखाकर उषा प्रियंवदा ने नैतिक मूल्यों में अपनी आस्था की अभिव्यक्ति की है।
            इस प्रकार उषा प्रियंवदा ने जिंदगी और गुलाब के फूलकहानी संग्रह में आधुनिकताबोध की विविध परिणतियों का अपनी समस्त सकारात्मकता और नकारात्मकता सहित प्रस्तुत किया है। इन कहानियों में प्राप्त होनेवाली घुटन, टूटन, निराशा, भौतिकता, पीढ़ीगत अंतराल, आत्मकेन्द्रीयता, अकेलापन, अजनबीपन, मृत्युबोध, मूल्य संकट और जीवन मूल्यों में आये बदलाव तथा अस्तित्व बोध आधुनिकता के ही विविध रूपों की अभिव्यक्ति है जिसका सफलतापूर्वक यथार्थ आलेखन उषा प्रियंवदा ने किया है। साथ ही मनुष्य के जीवन में आ रहे विघटनात्मक परिवर्तनों से उसे बचाने के लिए मूल्यों में अपनी आस्था प्रकट करना, उनकी वैचारिक परिपक्वता को ही प्रस्तुत करता है।  

2 comments:

sujagb said...

उषा प्रियंनवदा आधुनिकता बॊध और उषाप्रियंवदा की कहानियॉं-विषय का यह लेख हम जैसे अध्यापकॊं केलिए लाभदायक हैं। आपका प्रयास बहुत धन्य हैं । बधाइयॉं।

MALAPPURAM SCHOOL NEWS said...

sujagbji,
शुक्रिया।

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