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30 September 2012

गरिमा जोशी पंत की कविता - अच्‍छा ही हुआ कि वह शहर बदल गया...

बदलाव    गरिमा जोषी पंत (visit: http://www.rachanakar.org)

वह गुलमोहर का पेड़ नहीं था
जब अबकी बार कई सालों बाद
मेरा वहाँ जाना हुआ।
अच्‍छा ही हुआ कि वह शहर बदल गया।

एक बड़ी सी इमारत की नाली से
बहता झाग था जिससे मुझे था बचना
वो ओस की झरती बूँदें न थीं
जो मेरे-तेरे मिलन को और भी सिक्‍त करती थीं
वो मिलन जिसे मैंने ‘प्रेम‘ समझा।
अच्‍छा ही हुआ कि वह शहर बदल गया।


वो लंबी-लंबी पगडंडियों पर
जहाँ हम हाथ पकड़े, लड़ते कभी मिलते
चलते, बिना गाड़ी की दरकार के
वहाँ चमकती सड़कें हैं, चमकती
कारें भागती हैं जहाँ
अच्‍छा ही हुआ कि वह शहर बदल गया।

झुरमुटों झाड़ियों को खाकर
उग आए हैं कंकरीट के घने जंगल
हवा, पानी, किरण कुछ
आ नहीं सकती
इससे पहले कि मेरे हृदय में
सुप्‍त प्रेम का अंकुर फूट पड़ता।
अच्‍छा ही हुआ कि वह शहर बदल गया।

तेरे मेरे प्रेम के साक्षी
बच्‍चे बड़े हो गए, युवा भुलक्‍कड़
बुजुर्ग और बूढ़े बेजुबां
हमारे पगों के निषां
दफन हो गए हैं मोटी परतों के नीचे
नहीं तो यादें आँसू बन आँखों को देती सुजा
अच्‍छा ही हुआ कि वह शहर बदल गया।

तुम भी तो बदल गए थे
वादों से मुकर गए थे
बदलाव प्रकृति का नियम है, कब तक रोओगे
छोटी सी बात है, समझ में आ गया।
इसके पीछे का दर्शन बहुत बड़ा
अच्‍छा ही हुआ कि वह शहर बदल गया।

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